Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 474
________________ 447 - प्रस्तुत शोध-प्रब ध का प्रथम अध्याय मुख्यतः परिचयात्मक ही है। इसमें ग्रन्थ और ग्रन्थकार का परिचय दिया गया है। यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में एक सौ पाँच गाथाओं में निबद्ध है। इसकी प्राकृत अर्द्धमागधी है। मूल ग्रन्थ की विषय-वस्तु में जैन-परम्परागत चारों प्रकार के ध्यानों की चर्चा है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में हमने ग्रन्थ-परिचय के पश्चात् ग्रन्थकार का परिचय दिया है। इसमें जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत चर्चा करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि प्रस्तुत कृति जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की है और इसका रचनाकाल विक्रम की छठवीं शताब्दी ही है। यद्यपि इस ग्रन्थ पर कुछ टीकाएँ मिलती हैं, किन्तु जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि आचार्य हरिभद्र ही इसके प्रथम टीकाकार हैं। प्रस्तुत शोधप्रबंध के प्रथम अध्याय में टीकाकार आचार्य हरिभद्र का परिचय देते हुए उनके साहित्यिक-अवदान की भी चर्चा की गई है तथा हरिभद्र के ध्यान और योग-संबंधी ग्रन्थों का परिचय भी दिया गया है। अध्याय के अन्त में हरिभद्र के ध्यानशतक की टीका की क्या विशेषताएँ हैं -इसकी संक्षिप्त चर्चा की गई है। 'द्वितीय अध्याय - प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में जैन-परम्परा तथा अन्य-परम्परा के अनुसार ध्यान की परिभाषा का वर्णन, 'ध्यान' शब्द का सामान्य तथा विशेष अर्थ तथा अन्य ग्रन्थों के आधार पर ध्यान के स्वरूप का विवरण किया गया है। तत्पश्चात्, प्रस्तुत ग्रन्थ और उसकी टीका में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा है कि अध्यवसायों की स्थिरता ध्यान है तथा अध्यवसायों की अस्थिरता चित्त है। भावना चित्त की ध्यानाभिमुख–अवस्था है। आचार्य हरिभद्र ने अनुप्रेक्षा को ध्यान से भिन्न इसलिए माना है कि अनुप्रेक्षा ध्यान के बाद, अर्थात् उसके विचलन के बाद, होने वाली स्मृति है। इस प्रकार, उन्होंने मूल गाथा में वर्णित भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता –इन तीनों को भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाया है। तदनन्तर, छद्मस्थ और जिनेश्वर के ध्यान का वर्णन, आर्त्त, रौद्र, धर्म तथा शुक्ल -ध्यान के इन चार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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