Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
448
प्रकारों तथा उनके शुभत्व और अशुभत्व की चर्चा करते हुए कहा गया है कि आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान अशुभ-ध्यान हैं, धर्मध्यान पुण्यबंध की अपेक्षा से निश्चय के अनुसार चाहे अशुभ कहा जाए, किन्तु वह भी मोक्ष का हेतु होने से और शुक्लध्यान की पूर्ववर्ती अवस्था होने से शुभ ही है। शुक्लध्यान का शुभत्व केवल कर्मों की निर्जरा और मोक्ष का हेतु होने से व्यवहार-नय से ही माना गया है। इस अध्याय के अन्त में साधना की दृष्टि से धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान का स्थान और महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि धर्मध्यान अशुभ से निवृत्ति कराता है और शुक्लध्यान शुद्ध की प्राप्ति कराता है। अशुभ की निवृत्ति के बिना शुद्ध की प्राप्ति संभव नहीं है, अतः साधना के क्षेत्र में व्यक्ति धर्मध्यान के माध्यम से शुक्लध्यान अर्थात् आत्मा की शुद्ध अवस्था या मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
तृतीय अध्याय
तृतीय अध्याय में मुख्य रूप से आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के स्वरूप तथा लक्षणों और चारों के चार-चार भेदों की विस्तार से चर्चा की गई है। तत्पश्चात्, भावना, देश, काल, आसन, आलम्बन, क्रम, ध्येय, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग और फल –धर्मध्यान के अन्तर्गत इन बारह द्वारों का वर्णन किया गया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने साथ ही यह निर्देश किया है कि श्रमणों को उपर्युक्त द्वारों को जानकर, समझकर धर्मध्यान में अग्रसर होना चाहिए
और इस धर्मध्यान के अभ्यास के पश्चात् उन्हें शुक्लध्यान की ओर प्रगति करना चाहिए। जिस प्रकार धर्मध्यान के द्वार बताए गए हैं, उसी प्रकार शुक्लध्यान के भी ध्यातव्य, ध्यात, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लक्षण, आलम्बन तथा क्रम -इन सात द्वारों की चर्चा की गई है। इस ग्रन्थ के मूल ग्रन्थकार जिनभद्रगणि ने गाथा क्रमांक-उनसत्तर में शुक्लध्यान के आलम्बनों का उल्लेख करते हुए कहा है कि जिनमत में क्षमा, मार्दव, आर्जव तथा मुक्ति आदि गुणों की प्रमुखता रही है। इन आलम्बनों का आधार लेकर श्रमण शुक्लध्यान में आरूढ़ होता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org