Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 478
________________ 451 किया है। अन्त में, ध्यान और कायोत्सर्ग तथा कायोत्सर्ग और समाधि का विस्तार से वर्णन करते हुए कहा गया है कि ध्यान में चाहे विकल्पों की चंचलता समाप्त हो जाए, किन्तु निर्विकल्प-अवस्था तो मात्र शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरणों में ही है, अतः धर्मध्यान के अन्तिम चरण और शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों में चित्तवृत्ति की एकाग्रता के होते हुए भी वे निर्विकल्प-चेतना के प्रतिपादक नहीं हैं। ध्यान के बाद जब हम कायोत्सर्ग की बात करते हैं, तो उसमें मन-वचन-काया के प्रति ममत्वभाव का त्याग होता है, अतः इतना तो कहा जा सकता है कि कायोत्सर्ग निर्विकल्पता की ओर ले जाता है, किन्तु जहाँ तक समाधि का प्रश्न है, तो समाधि मूलतः निर्विकल्प-चेतना की अवस्था है। जहाँ ध्यान में चित्तवृत्ति की एकाग्रता साधी जाती है, वहाँ कायोत्सर्ग में ममत्व के त्याग के माध्यम से निर्विकल्पता की दिशा में बढ़ने का प्रयत्न होता है, किन्तु निर्विकल्प-दशा में स्थिरता -यह समाधि है, अतः हम कह सकते हैं कि ध्यान और कायोत्सर्ग निर्विकल्प समाधि के साधक हैं। षष्ठ अध्याय इस कृति के षष्ठ–अध्याय में ध्यान के ऐतिहासिक विकास-क्रम की चर्चा मुख्य रूप से दो पक्षों के आधार पर की गई है –(1) साहित्यिक, (2) पुरातात्त्विक । साहित्यिक-ऐतिहासिक-क्रम - साहित्यिक-दृष्टि से वेदों के बाद मुख्य रूप से उपनिषदों, बौद्ध-त्रिपिटक के ग्रन्थों तथा जैन आगम-ग्रन्थों में हमें किसी-न-किसी रूप में ध्यान-साधना के उल्लेख मिलते हैं, जैसे –आचारांग, सूत्रकृतांग, औपपातिक, ऋषिभाषित आदि। . डॉ. सागरमल जैन ने कहा है - "बौद्ध-परम्परा की विपश्यना और निर्ग्रन्थ-परम्परा की आचारांग में वर्णित ध्यान-साधना में जो कुछ निकटता प्रतीत होती है, वह यह सूचित करती है कि सम्भवतः दोनों का मूल स्रोत रामपुत्त की ध्यान-पद्धति रही होगी।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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