Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 457
________________ 431 जहाँ सत्य शब्द प्रवृत्तिपरक है, तो वहीं दूसरी ओर अहिंसा निवृत्तिपरक। चाहे कोई भी व्रत क्यों न हो, लेकिन उसमें निवृत्तिपरक एवं प्रवृत्तिपरक –दोनों पक्ष होते हैं। जैसे आगमानुसार धर्म-आचरण की परिपालना में अधर्माचरण का स्वतः ही त्याग हो जाता है, वैसे ही अधर्माचरण के त्याग की प्रतिज्ञा में धर्माचरण का स्वतः ही विधान हो जाता है। इसी कारण, अहिंसादि सत्प्रवृत्ति करने में हिंसादि की दुष्प्रवृत्ति से निवृत्ति स्वतः समाहित रहती है। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुनसेवन तथा संग्रह-वृत्ति का मानसिक-वाचिककायिक रुप से परित्याग करना ही अहिंसा है, व्रत की पालना है। अहिंसा :- मन, वचन और काया के माध्यम से बड़ी या छोटी सम्पूर्ण हिंसा रुप क्रिया से निवृत्त होना अहिंसाव्रत है। सत्य :- मानसिक, वाचिक तथा कायिक-प्रवृत्ति में सर्वथा अप्रामाणिकता का त्याग ही सत्य-व्रत है। अस्तेय :- कोई भी वस्तु बिना उसके स्वामी की आज्ञा के ग्रहण करना चोरी है और इसी का परित्याग अचौर्यव्रत है। ब्रह्मचर्य :- सर्वथा मैथुनसेवन का त्याग ब्रह्मचर्य-व्रत है। अपरिग्रह :- किसी भी प्रकार की वस्तु, चाहे स्थूल हो या सूक्ष्म, उस पर मूर्छा, आसक्ति या ममता का त्याग ही अपरिग्रह-व्रत कहलाता है। जब तक इन पांचों का पालन आंशिक रुप से होता है, तब तक वे अणुव्रत कहे जाते हैं और जब इनका पालन पूर्णतः होता है, तो ये महाव्रत कहे जाते हैं। ___'गृहस्थ के लिए इनका पूर्णतः पालन शक्य नहीं है, पर साधु के लिए शक्य होता है। इनमें अहिंसा को प्रथम स्थान इसलिए मिला, क्योंकि वह इन सबमें प्रधान है। इस संदर्भ में पातंजल योगसूत्र और जैनागमों का चिन्तन प्रायः समान है।180 180 क) 'तत्र हिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामभिद्रोह .... -व्यासभाष्य 2/30 ख) 'एसा सा भगवती अहिंसा जासा भीयाण .... विसत्त्थगमणं इत्यादि। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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