Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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पातंजल योगसूत्र में संप्रज्ञात-योग के वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत तथा अस्मितानुगत-रुप जो चार भेद बताए हैं,202 वे शुक्लध्यानान्तर्गत आ जाते हैं। चौथे भेद में सम्पूर्ण मनोवृत्तियों का पूर्णरुपेण निषेध हो जाने पर आत्मा, अजर, अमर, अविचल, अविनाशी, सिद्ध-बुद्ध और मुक्त बन जाती है। यहाँ आत्मा को अतिविशुद्ध मूलस्थिति की प्राप्ति होती है और आत्मा लोक के अन्त भाग में जाकर विश्राम लेती है।
8. समाधि -
योगांगों का अन्तिम अंग समाधि है। समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित चित्तवृत्ति की जो निर्विकल्पता है, वही समाधि कहलाती है। जब ध्यान में चित्त एकरुपता या तन्मयता प्राप्त कर ध्येय के स्वरुप में लीन हो जाता है, वही समाधि है। इसमें आत्मा अपने वास्तविक स्वरुप में निमग्न रहती है और निजानन्द का अनुभव करती है।
पातंजल203 योगसूत्र के माध्यम से यह बात सामने आती है कि जब ध्याता ध्येय वस्तु के स्वरुप से एकाकार होकर उस स्वरुप में लीन हो जाता है, तब वह समाधि को प्राप्त करता है। सारांश यह है कि ध्यान में ध्याता, ध्यान तथा ध्येय भिन्न-भिन्न अवस्था में दिखते हैं, परन्तु समाधि-दशा में तीनों ही एक प्रतीत होते हैं। ध्यान से साध्य समाधि का यही संक्षिप्त स्वरुप है, जिसे पातंजल-दर्शन ने समाधि नामक योग का आठवां अंग कहा है।
202 योगसूत्र 203 क) 'तदेवार्थनिर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधिः । -योगसूत्र 3/3 ख) 'ध्यानमेव ध्येयाकारनिर्भासं प्रत्यात्मके स्वरूपेण शून्यमिव यदा भवति,
ध्येयस्वभावावेशात्तदा समाधिरित्युच्यते। – व्यासभाष्यम्
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