Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

View full book text
Previous | Next

Page 467
________________ हठयोग और तन्त्र - साधना में देह में स्थित षटचक्रों के भेदन और कुण्डलिनी जागरण का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचारांगसूत्र में एक बात मिलती है, वहाँ कहा गया है – साधक को अन्तःकरण में उतरकर देह के भीतरी भागों में अवस्थित ग्रन्थियों तथा उनके अन्तःस्रावों को देखना चाहिए, लेकिन षट्चक्र-भेदन और कुण्डलिनी जागरण की चर्चा लगभग 11वीं शताब्दी के पूर्ववर्ती जैन साहित्य में नहीं मिलती है। संभवतः तन्त्र और हठयोग के प्रभाव से ही जैनपरम्परा में शुभचन्द्र (11वीं शताब्दी) और हेमचन्द्र ( 12वीं शताब्दी) के ग्रन्थों में प्राणायाम और उनके विभिन्न रूपों के साथ-साथ पिण्डस्थ, पदस्थ, रुपस्थ और रुपातीत इन चार के ध्यानों तथा पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वारुणी और तत्त्ववती आदि पांच धारणाओं की चर्चा मिलती है । यद्यपि हेमचन्द्र ने कुण्डलिनी जागरण और षट्चक्रभेदन की कोई बात नहीं की है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, सर्वप्रथम 13 वीं शताब्दी में 'परमेष्ठिविद्यामन्त्रकल्प' में इसका निर्देश किया गया है। वे लिखते हैं कि कुण्डलिनीतन्तुद्युतिसंभृतमूर्तीनि सर्वबीजानि । शान्त्यादि - संपदे स्युरित्येषो गुरुक्रमोऽस्माकम्।। किं बीजैरिह शक्तिः कुण्डलिनी सर्वदेववर्णजनुः । रवि - चन्द्रान्तर्ध्याता भुक्त्यै च गुरुसारम् । ।" 205 204 इसमें यह बताया गया है कि कुण्डलिनी नाड़ी सभी बीजाक्षरों और उनसे निर्मित मंत्रों की प्रकाशवान् मूर्ति है । यह शान्ति और सम्पदाओं का आधार है । 441 सूर्यनाड़ी, चन्द्रनाड़ी अथवा ईड़ा, पिंगला नाड़ी में बीजाक्षरों का ध्यान करने से भोग-सम्पदा और सुषुम्ना में ध्यान करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन - परम्परा में तान्त्रिक - साधना के प्रभाव से लगभग 13 वीं शताब्दी में कुण्डलिनी जागरण, षट्चक्रभेदन आदि की चर्चा प्रारम्भ हुई । 204 आचारांगसूत्र, 1/2/5 205 परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्प । - सिंहतिलकसूरि, श्लोक -72-74 इस काल के दिगम्बर- परम्परा में लिखे गए कुछ ग्रन्थों में भी इस प्रकार की चर्चा मिलती है। ऐसे निर्देश तो हमें मिलते हैं, किन्तु उनके मूलग्रन्थों के प्राप्त न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495