Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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पातंजल ध्यान की योगसाधना तथा जैनध्यान साधना : एक तुलनात्मक
अध्ययन
अन्त में यही समझना है कि ध्यान आध्यात्मिक उर्श्वीकरण का अनन्य हेतु । ध्यान-साधना अकृत्रिम, अक्लिष्ट, उपादेय तथा सुसाध्य होना चाहिए। 174
पातंजल योगसूत्र में यह उल्लेखित है कि अष्टांगयोग के अनुष्ठान से चित्त में स्थित अशुद्ध-वृत्तियों का नाश होते ही आत्मा में शुद्ध ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। 75 पातंजल योगसूत्र के अनुसार, योग के आठ अंग निम्नांकित हैं
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यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि ।'
जैसे-जैसे साधकात्मा इन अंगों का क्रमशः अनुष्ठान करती है, वैसे-वैसे उसके चित्त का शुद्धिकरण होता जाता है। ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जाता है। अन्त में वीतरागता या केवलज्ञान का आविर्भाव हो जाता है ।
अष्टांगयोग के अनुष्ठान से साधक को दो फलों की प्राप्ति होती है
(1) चित्तगत अशुद्धता का निवारण, और (2) केवलज्ञान की प्राप्ति । 177
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इन आठ अंगों में पहले के पांच अंग बहिरंग साधन' 178 कहलाते हैं तथा बाद के तीन अंग अन्तरंग साधन माने गए हैं।
174 कबीर साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 116
'योगांगनुष्ठानात् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिः आविवेकख्यातेः । पातंजल सूत्र 28)
176 ‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि
प्रथम के पांच अंग-दोषों के निवारण में सहायक होते हैं तथा अन्तिम तीन केवल - ज्ञान की प्राप्ति में विशेष सहयोगी माने जाते हैं।
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योगांगनुष्ठानम्, अशुद्धेर्वियोगकारणं यथा परशु छेद्यस्य, विवेकख्यातेस्तु प्राप्तिकारणं यथाधर्मः सुखस्य (व्यासभाष्य 2 / 29)
178 'उक्तानि पंच बहिरंगाणि साधनानि (व्यासभाष्य 3 / 1 )
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पातंजल योगसूत्र 2/29
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