Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 462
________________ 436 5. प्रत्याहार . महर्षि पतंजलिकृत योगसूत्र में प्रत्याहार की व्याख्या यह है कि अपने विषयों से सम्बद्ध इन्द्रियों का चित्त में एकीकरण हो जाना प्रत्याहार है। 193 इन्द्रियविजयी बनने हेतु प्रत्याहार अपेक्षणीय है, क्योंकि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त साधक समता को प्राप्त कर ध्येय पर अवस्थित होने की क्षमता को प्राप्त कर लेता है। जैन-ग्रन्थों में प्रत्याहार को प्रतिसंल्लीनता कहा गया है। जैनागमानुसार, प्रतिसंल्लीनता अर्थात् शरीर, इन्द्रिय तथा मन को अशुभ प्रवृत्तियों से लौटा लेना है। जैनागमों में प्रतिसंल्लीनता को चार भागों में विभक्त किया है,194 यथा - (1) इन्द्रिय–प्रतिसंल्लीनता . (2) कषाय–प्रतिसंल्लीनता (3) योग-प्रतिसंल्लीनता । (4) विविक्तशयनासनसेवनता। 6. धारणा - पतंजलि ने धारणा की व्याख्या करते हुए कहा है - जैसे सूर्य, चन्द्रादि बाह्यदेश में स्थित हैं, वैसे ही हृदयकमल, नाभिचक्र, आज्ञाचक्रादि आभ्यन्तर-देश, अर्थात् शरीर में स्थित हैं। इनमें से किसी भी एक देश-स्थान पर चित्त का स्थिर हो जाना धारणा कहलाती है। आगमों में किसी एक पुद्गल-विशेष पर या किसी सूक्ष्म या स्थूल विषय-वस्तु पर चित्तवृत्ति को स्थिर करके मन की एकाग्रता सम्पादनार्थ धारणा का समर्थन किया है।195 निष्कर्षतः, ध्येय पदार्थ में चित्तवृत्ति की एकाग्रता ही धारणा है। 193 'स्वविषयासंप्रयोगे चित्त स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां ...... प्रत्याहारः। -भोजवृत्ति 2.154 194 ‘से कि तं पडिसंलीणयाद्य ? चउव्विहा पण्ण्तां तं – इंदिअपडिसलीणया, कसायपडिसंलीणया, जोगपडिसंलीणया, विवित्तसयणासण सेवणया। -औपपातिकसत्र बाह्यतपोऽधिका 195 भगवतीसूत्र श. 3 उ. 2 में भगवान महावीर स्वामी ने अपनी तपश्चर्या का वर्णन करते हुए ध्यान के लिए किसी एक पुद्गल पर दृष्टि को स्थिर करने का निर्देश किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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