Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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बताई है -जिस-जिस आसन के प्रयोग से साधक का मन स्थिर बने, उसी आसन का प्रयोग ध्यान के समय किया जाना चाहिए।188
4. प्राणायाम :
आसन के पश्चात् अष्टांगों में प्राणायाम का वर्णन आता है। पातंजल योगदर्शन में यह उल्लेख189 है कि प्राणायाम की प्रक्रिया के माध्यम से ज्ञान का आवरण करने वाले ज्ञेयावरण क्षीण हो जाते हैं और मनोवृत्ति निश्चल एकाग्र हो जाती है।
बाहर की शुद्ध हवा को अन्दर खींचना तथा अन्दर की अशुद्ध हवा (वायु) को बाहर निकालना -यह श्वास-प्रश्वास की सहज प्रक्रिया है।
शरीरस्थ वायु के पाँच प्रकार और पाँच स्थान होते हैं -
शरीरस्थ वायु के प्रकार प्राणवायु के रहने का स्थान 1. प्राण
- नाभि, हृदय और नासिका के अग्रभाग में। 2. अपान
- गर्दन के पीछे नाड़ियों में तथा गुर्दा स्थान में। 3. समान
- सन्धियों में। 4. उदान
- हृदय, कण्ठ, तालु, मस्तिष्क के मध्य में। 5. व्यान.
- शरीर के समस्त भागों में। पतंजलि के अनुसार, श्वास के आने-जाने में व्यवधान न हो, यही प्राणायाम है। यह तीन भागों में विभाजित है – (1) रेचक (2) पूरक, और (3) कुम्भक
1. रेचक – नाभि-प्रदेश में स्थित वायु को यत्नपूर्वक धीरे-धीरे नासारन्ध्र से बाहर निकालना रेचक है।
188 योगशास्त्र, चतुर्थप्रकाश -134 189 क) ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् –2/52 ख) प्राणायामानभ्यस्तयोऽस्य योगिनः
क्षीयते विवेक ज्ञानावरणीयं कर्म ........... || -व्यासभाष्य
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