Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 450
________________ 424 जैनध्यान-साधना तथा बौद्धध्यान-साधना : एक तुलनात्मक अध्ययन - जैनध्यान-साधना और बौद्धध्यान-साधना पर जब हम तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि दोनों में विशेष अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों ही साधना-पद्धतियाँ आत्मसजगता या अप्रमत्तता की बात करती हैं, साथ ही इन दोनों की ध्यान-साधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य चित्त की सजगता से चेतना की निर्विकल्प--स्थिति को प्राप्त करना है, क्योंकि दोनों साधना-पद्धतियाँ यह मानती हैं कि जब तक चित्त निर्विकल्प नहीं होता, तब तक मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति संभव नहीं। बौद्धसाधना में चित्त का निर्विकल्प हो जाना, अथवा विकल्पशून्य हो जाना ही साधना का लक्ष्य है, यानी भव का अभाव अथवा निर्वाण को प्राप्त करना है161 और यह निर्वाण तब ही सम्भव है, जब तृष्णा और वेदनाजन्य दुःखों की पूर्ण शान्ति हो।162 इन्द्रियजन्य विकारों तथा मन के संसर्ग की आकांक्षा या अपेक्षा तृष्णा कहलाती है। इन कामनाओं, इच्छाओं पर विजय पाना बहुत कठिन है। 163 बौद्ध-ग्रन्थों में मोटे तौर पर तृष्णा को तीन रुपों में प्रतिपादित किया गया है - 1. कामतृष्णा, 2. भवतृष्णा और 3. विभवतृष्णा भौतिक-पदार्थों को पाने की इच्छाएँ, कामनाएँ कामतृष्णा कहलाती हैं। परपदार्थों को ममत्वबुद्धि के कारण अपना मानना, अपनेपन का मिथ्या आरोपण करना और उन पर-पदार्थों का वियोग न हो -ऐसी चाह भवतृष्णा है। दुःख, संवेदनरुप विषयों के संसर्ग के नष्ट होने की चाह विभवतृष्णा कहलाती है। 164 इन तीनों तृष्णाओं से दुःख का प्रादुर्भाव होता है अतः मूलतः इन तृष्णाओं की अभावता में ही 161 संयुक्त निकाय, पृ. 117 162 प्रस्तुत संदर्भ 'भारतीय दर्शन में योग - डॉ. मंगला, पुस्तक से उद्धृत, पृ. 283 169 कामा दुरतिक्कमा..... II, आचारांगसूत्र 1/2/5 164 जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 302 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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