Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 443
________________ 417 का समावेश किया गया है। आगे के प्रबन्ध में सम्यक्त्व-ग्रहण, मिथ्यात्व-त्याग और असद्ग्रहण-त्याग के विषयों पर प्रकाश डाला है। पांचवां प्रबन्ध योग तथा ध्यानविषयक है और यही विषय मेरे शोधकार्य का है। इसलिए यहां अध्यात्मसार के अनुसार योग तथा ध्यान का संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है। 'योग–अधिकार' में कर्म तथा ज्ञान के दो भेदों का वर्णन करते हुए आवश्यकादि-क्रिया अर्थात् शारीरिक-चेष्टाएँ कर्मयोग तथा इन्द्रियों के प्रति अनासक्ति ज्ञानयोग है। श्लोक क्रमाक-इक्कीस में कहा गया है कि प्राथमिक स्तर पर योगियों को सत्क्रिया की आवश्यकता रहती है और ऊँचे स्तर में तो मात्र शम की ही आवश्यकता रहती है।140 आगे कहा है- क्रिया के अभाव में ज्ञान का और ज्ञान के अभाव में क्रिया का कोई अस्तित्व नहीं होता है। इसके मध्य श्लोकों में कर्म तथा ज्ञान-योग के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए अन्तिम श्लोक में कहा गया है -“कर्मयोग का सम्यक् प्रकार से अभ्यास करके, ज्ञानयोग में अच्छी तरह स्थिर होकर ध्यानयोग पर आरुढ़ होकर मुनि मुक्तियोग को प्राप्त करे।141 'ध्यान अधिकार' में यशोविजयजी ने 'ध्यानशतक' के समान ही मन के एक ही विषय पर स्थिर होने को ध्यान कहा है और वही मन जब अलग-अलग विषयों में केन्द्रित होता है तब वह अस्थिर मन चित्त कहलाता है। पुनः, चित्त की तीन अवस्थाएं बताई है -1. भावना, 2. अनुप्रेक्षा और 3. चिन्ता। 42 तत्पश्चात्, ध्यान के चार प्रकारों का वर्णन किया है। आर्त और रौद्र-ध्यान को अशुभ तथा धर्म और शुक्लध्यान को शुभ की कोटि में गिना है। आर्तध्यान के चार प्रभेद, उसमें कौन-कौनसी लेश्या की सम्भावना, लक्षण ओर इस ध्यान की सत्ता किस गुणस्थान तक सम्भव है, तथा उसकी गति क्या है -इन सभी की चर्चा की गई है।143 श्लोक क्रमांक-11 से 16 तक रौद्रध्यान का वर्णन, तत्पश्चात् धर्मध्यान का विश्लेषण करते 140 अभ्यासे सत्क्रियापेक्षा योगिनां ....... - अध्यात्मसार, 15/21 141 कर्मयोगं समभ्यस्य ................ - वही, 15/83 142 स्थिरमध्यवसानं यत ......तत्त्रिधामतम् ।। - अध्यात्मसार, 16/1 143 आर्त रौद्रं च धर्म च शुक्ल ......तिर्यगगसिप्रदम् ।। – वही, 16/3 से 10 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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