Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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हुए श्लोक क्रमांक - 18 से 72 तक भावना, देश, काल, आसन, आलंबन, क्रम, ध्यातव्य, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग और फल - इन बारह संबंधों का विस्तार से विवरण किया है। 144 धर्मध्यान के पश्चात् शुक्लध्यान का वर्णन किया है। शुक्लध्यान के 1. सपृथक्त्वसवितर्कसविचार 2. एकत्वसवितर्क अविचार, 3. सूक्ष्मक्रिया – अनिवृत्ति तथा 4. समुच्छिन्नक्रिया - अप्रतिपाती - इस प्रकार चार भेदों की चर्चा, प्रथम दो चरण का फल, स्वर्गलोक तथा चरम दो चरण का फल मोक्ष है -- इस बात का उल्लेख किया गया है। 145 आगे, शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षा, लक्षण, लेश्या पर प्रकाश डाला है और अन्तिम श्लोक में ग्रन्थकार ने कहा है - "जो भगवान् की आज्ञा द्वारा शुद्ध ध्यान का यह क्रम जानकर इसका अभ्यास करते हैं, वे सम्पूर्ण अध्यात्म को जानने वाले होते हैं।" इसी प्रबन्ध के सत्रहवें अधिकार में ध्यान की स्तुति की गई है। छठवें प्रबन्ध के अन्तर्गत आत्मनिश्चय और जिनमत की स्तुति की विवेचना की गई है । अन्तिम - प्रबन्ध में अनुभव तथा सज्जन-र - स्तुति का वर्णन करके ग्रन्थ को समाप्त कर दिया गया है। आत्मोपलब्धि के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए यह कृति अत्यन्त सहायकभूत है। साथ ही योग और ध्यान-साधना की अपेक्षा से यह एक बहुमूल्य कृति है।
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आधुनिक
आधुनिक युग में मनुष्य तनावों से ग्रस्त है, उसका मुख्य कारण यह है कि वह भौतिक-सुख-सुविधाओं को ही यथार्थ सुख मानकर एक भ्रान्त जीवन जीने लगा है। इन भौतिक - सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए वह पागल सा हो गया है। उसे न दिन में चैन है और न रात में आराम। दूसरे शब्दों में, भौतिकवादी जीवन-दृष्टि के कारण उसकी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और अपेक्षाएँ बहुत बढ़ गई हैं।
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144 भावनादेशकालौच..
145 सवितर्क सविचारं
आद्येयो सुरलोकाप्तिरत्ययोस्तु महोदयः । ।
146 एनं ध्यानक्रमं शुद्धं मत्वा भगवदाज्ञया । यः कुर्यादेतदभ्यासं संपूर्णाध्यात्मविद् भवेत् । । - वही, 16/86
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.प्रौढपुण्यानुबंधिनीम् ।।
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वही, 16 / 18 से 172
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वही, 16 / 74 से 80
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