Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 438
________________ वैराग्यकल्पलता पूर्ण कृति है । इस कृति को जैन संस्कृत - साहित्य में रुपकसाहित्य का उद्गम- विकास के रुप में ख्याति प्राप्त है । यह भारतीय - साहित्य का सर्वोत्तम संस्कृत कथासार महाकाव्य है । रुपक- कथाओं में जैसे 'उपमितिभवप्रपंचा' सर्वोत्तम शिखर - रुप है, वैसे ही महाकाव्यों में 'वैराग्यकल्पलता' सर्वोत्तम है । 5. गुरुतत्त्वविनिश्चय प्राकृत भाषा में विरचित प्रस्तुत ग्रन्थ की 905 गाथाएँ हैं । उपाध्यायश्री स्वयं ने 7000 श्लोक - परिमाण संस्कृत गद्यरुप टीका लिखी, चार उल्लासों द्वारा गुरुतत्त्व के सत्य-स्वरुप का वर्णन किया । — 6. द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिंका 'यथा नाम तथा गुण' – इस उक्ति को फलित करने वाला प्रस्तुत काव्य 1024 श्लोक - परिमाण है । यह पद्यात्मक - शैली की रचना है । महोपाध्याय यशोविजयजी द्वारा रचित यह 32-32 श्लोकों में 32 अलग-अलग 412 - 1 विषय-वस्तु पर प्रकाश डालता हुआ 32 अल्पकायी रचनाओं का काव्य है । इस काव्य में स्थित प्रत्येक लघुग्रन्थ की यथार्थ विषय-वस्तु के नाम इस प्रकार हैं दान, देशना, मार्ग, जिनमहत्त्व, भक्ति, साधुसामग्य, धर्मव्यवस्था, वाद, कथा, योगलक्षण, पातंजलयोगलक्षण, पूर्वसेवा, मुक्ति- अद्वेषप्राधान्य, अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, ईशानग्रह, देवपुरुषकार, योगभेद, योगविवेक, योगावतार, मित्रातारादित्रय, कुतर्कग्रहनिवृत्ति, सद्वृष्टि, क्लेशहानोपाय, योगमहात्म्य, भिक्षु, दीक्षा, विनय, केवलीभुक्तिव्यवस्थापन, मुक्ति और सज्जनस्तुति आदि । इसमें विशेष बात यह है कि प्रत्येक बत्तीसी के अंतिम श्लोक में 'परमानंद' शब्द का प्रयोग हुआ है । उपाध्यायश्री ने तत्त्वार्थदीपिका 138 नामवाली स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी । - Jain Education International 6. नयोपदेश यह रचना सात नयों के स्वरुप को प्रतिपादित करती है । 7. प्रतिमाशतक 'प्रतिमाशतक' नामक काव्यग्रन्थ की रचना मूर्तिपूजा के विरोध करने वाले को हितशिक्षा देने के सन्दर्भ में की गई है। इस काव्य का श्लोक - परिमाण 100 है। इसमें मुख्यरूप से चार वादस्थान की चर्चा है । यथा 1. प्रतिमा की पूज्यता, 2. क्या विधिकारित प्रतिमा की ही पूज्यता है ? 3. क्या 138 यशोविजयजी नाम्ना तत्चरणाम्भ्योजसेविना । द्वात्रिंशिकानां विवृत्तिश्वक्रे तत्त्वार्थदीपिका - द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका की प्रशस्ति के नीचे का श्लोक For Personal & Private Use Only - — www.jainelibrary.org

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