Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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योगाष्टक - इस अष्टक के प्रथम श्लोक में कहा है कि मोक्ष के साथ आत्मा को जोड़ देने से वह सम्पूर्ण आचार-योग कहलाता है। विशेष रुप से स्थान, वर्ण, अर्थ, आलंबन और एकाग्रता 132 संसार की समस्त जीव-राशि में विकसित-अविकसित रुप से दो कर्मयोग 133 और तीन ज्ञानयोग रहते ही हैं और एक-एक के चार-चार भेद हैं, यथा- इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि। इन चारों की व्याख्या योगाष्टक के चतुर्थ श्लोक में की गई है। 134 फिर आलंबन और निरालंबन की चर्चा में निरालंबन की श्रेष्ठता का वर्णन किया है। तत्पश्चात, योगनिरोध के द्वारा ही मोक्ष संभव है -इस प्रकार योगाष्टक में उल्लेख है।
ध्यानाष्टक - ध्यान-अष्टक के अन्तर्गत ध्याता, ध्येय और ध्यान की त्रिपदी में एकता का वर्णन 135 है और इन तीनों की एकता ही समापत्ति है तथा इस समापत्ति के फलस्वरुप तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है।
"ध्येय में जिसने चित्त की स्थिरतारुप धारा से वेग-पूर्वक बाह्य-इन्द्रियों का अनुसरण करने वाली मानसिक-वृत्ति को रोक लिया है, जो प्रसन्नचित्त है, प्रमादरहित है और ज्ञानानन्दरुपी अमृतास्वादन करने वाला है; जो अन्तःकरण में ही विपक्षरहित चक्रवर्त्तित्व का विस्तार करता है, ऐसे ध्याता की देवसहित मनुष्यलोक में भी सचमुच उपमा नहीं है। 136 प्रस्तुत कृति साधकों के लिए 'मार्गदर्शिका' के रुप में है। कुछ विद्वानों ने इसका नाम 'जैनधर्म की गीता' रखा।137 4. वैराग्यकल्पलता - उपाध्यायं यशोविजयजी द्वारा प्रणीत “वैराग्यरति' और 'वैराग्यकल्पलता' इन दोनों कृतियुगल का पूर्वापर संबंध है। वैराग्यरति अपूर्ण और
132 मोक्षेण योजनाद् .........गोचरः ।। -ज्ञानसार (योगाष्टक 2) 133 कर्मयोग द्वयं...........परेष्वपि।। - वही, 2 134 भेदाः प्रत्येकमत्रेच्छा-प्रवृत्तिस्थिरसिद्धयः ।। - ज्ञानसार, अष्टक–27, श्लो. 3-4
'इच्छा तद्वत् कथाप्रीति. ..सिद्धिरन्यार्थसाधनम्।। - ज्ञानसार, अष्टक-27, श्लोक-4 135 ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं त्रयं यस्यैकतां गतम्। - वही, अष्टक-30, श्लोक-1 136 प्रस्तुत व्याख्या ज्ञानसार, विवेचनकार भद्रगुप्तविजयगणि, ध्यानाष्टक के अन्तर्गत, पृ. 453 137 उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ – सं. प्रद्युम्नविजयगणि, पृ. 81
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