Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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को वाद-विवाद में पराजित करके काशीनगर तथा काशी के पंडितों और अपने विद्यागुरु भट्टाचार्य की यशकीर्ति को आपने चारों दिशाओं में फैला दिया। इस अवसर पर सभी पण्डितों ने मिलकर यशोविजयजी को 'न्याय-विशारद' और 'तार्किक-शिरोमणि' की पदवी से अलंकृत किया, 116 तत्पश्चात् आप आगरा पधारे। वहाँ भी आपश्री ने तर्कसिद्धान्त, प्रमाणशास्त्र आदि का करीब चार वर्ष तक अध्ययन किया। इस प्रसंग का वर्णन मात्र ‘सुजसवेलीमास' में है। 117 धीरे-धीरे यशोविजयजी की विद्वत्ता की ख्याति फैलने लगी। महाश्रमणमुदितकुमार द्वारा संपादित 'उपासना' भाग-1 में लिखा गया है -"यहाँ तक सुना जाता है कि 1729 में इन्होंने खम्भात में वर्षावास बिताया। वहाँ जैनेत्तर विद्वानों द्वारा दिए गए विषय पर संस्कृत भाषा में इतना धाराप्रवाह व्याख्यान दिया जिससे सुनने आए सारे लोग अवाक् थे। भाषण की विशेषता यह थी कि जिसमें न तो अनुस्वार ही था और न ही कोई संयुक्त अक्षर"118 इस प्रकार जिनशासन की प्रभावना करते-करते एक बार वे अहमदाबाद पधारे। वहाँ संवत् 1718 में विजयप्रभसूरि न उन्हें उपाध्याय पदवी से अलंकृत किया। 19
यशोविजयजी के हृदय में आनंदघनजी के प्रति विशेष प्रीति थी, इस बात का प्रमाण हमें आनंदघन अष्टपदी में मिलता है। 120
यशोविजयजी का कहना था कि पारसमणि के समान आनंदघनजी का जैसे ही मैंने स्पर्श किया और मैं लोहे से कंचन के रुप में परिवर्तित हो गया।121
॥6 पूर्व न्यायविशारदत्व विरूदं काश्यां प्रदत्तं बुधैः।
न्यायाचार्य पदं ततः कृत शतग्रन्थस्य यस्यार्पितम्।। - उ.यशोविजयजीकृति प्रतिमाशतक ग्रंथ पृ.1 ॥” काशीयी बुधराय, त्रिहु वरषांतरे हो लाल तार्किक नाम धराय आव्यापुर आगरे हो लाल। - सुजसवेलीभास, गा. 218 118 'उपासना' भाग-1 पुस्तक से उद्धृत, पृ. 253 ।। ओली तप .........श्रीविजयप्रभ दीध।। -वही, 3/12 | 120 कोई आनंदघन छिद्र ही परवत जसराय संग चडी जाय। आनंदघन आनंदरस झीलत, देखत ही जस गुण गाय ।। -आनंदघन अष्टपदी 121 आनंदघन के संग सुजस ही मिले जब तब आनंद सम भयो सुजस।
पारस संग लोहा जो फरसत, कंचन होत ही ताके कस। -आनंदघन अष्टपदी
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