Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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किया गया है और अन्तिम श्लोक में पूर्व के तीनों प्रकाशों में कहे हुए विषयों का उपसंहार किया है।
चतुर्थ प्रकाश के 136 श्लोक हैं। उसमें आत्मा के परमात्मा से योग के लिए आत्मस्वरुपरमण, कषायों और विषयों पर विजय, चित्तशुद्धि, इन्द्रिय-निग्रह, मनो- विजय, समत्व, ध्यान, बारह अनुप्रेक्षाओं, मैत्री आदि चार भावनाओं तथा आसनों का विवेचन किया गया है।93
पांचवे प्रकाश का श्लोक-परिमाण 273 है। इसमें निम्नांकित विषयों पर चर्चा की गई है -प्राणायाम का स्वरुप, प्रकार, भेद, लाभ, पंचवायु का वर्णन, चार धारणा, स्वर द्वारा ईडा आदि का ज्ञान, नाड़ी-परिवर्तन का ज्ञान, परकायप्रवेश विधि का फल आदि की चर्चा की गई है।84
योगशास्त्र का छठवां प्रकाश मात्र आठ श्लोक-परिमित है। इसमें प्राणायाम को आवश्यक नहीं माना गया है, साथ ही प्राणायाम, प्रत्याहार एवं धारणा के लक्षण तथा फल का विवेचन है।5।।
सातवें प्रकाश तथा आठवें प्रकाश में अधोलिखित भिन्न-भिन्न विषयों पर विवेचना की है –ध्यान का क्रम, पिंडस्थ आदि चार ध्येय, पार्थिवी आदि पाँच धारणाएँ तथा उनके लक्षण, पिण्डस्थ तथा पदस्थ-ध्यान के लक्षण, विधि, फल और अन्त में रागरहित पदों का ध्यान हीं पदस्थ ध्यान है।
2 दशस्वपि कृता दिक्षु .....नासादयति निर्वृत्तिम् ।। - वही, प्र. 3 श्लोक 1-155, पृ. 147-430 3 आत्मैवदर्शन-ज्ञान .....ध्याता ध्यानोद्यतो भवेत् ।। - वही, प्र. 4, श्लोक 1-136, पृ 431-514 84 प्राणायामस्ततः कैश्चिद्......संचरेत्सुधीः ।। - योगशास्त्र, प्र.5, श्लो. 1-273, पृ. 515-560 5 इह चायं परपुर ....बहवः प्रत्ययाः किल।। - वही, प्र.6, श्लो.1-8, पृ 561, 562 86 क) ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं.....स्तम्भिता इव दूरतः ।। - वही, प्र.7, श्लो.1-28, पृ. 563-567
ख) यत्पदानि पवित्राणि...प्रचितभवशतोत्थक्लेशनिर्नाश हेतोः ।। - वही. प्र.8, श्लो. 1-81, पृ. 568-581
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