Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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'योगशास्त्र' - यह नाम भी सार्थक है। इन दोनों ग्रन्थों में इतनी अधिक समानता दृष्टिगोचर होती है कि जिसे देखते हुए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि एक ग्रन्थ को सामने रखकर दूसरे ग्रन्थ की रचना की गई है। दोनों की यह समानता न केवल विषय-विवेचन की दृष्टि से ही उपलब्ध होती है, बल्कि अनेक श्लोक भी ऐसे हैं, जो दोनों में अविकल रूप से पाए जाते हैं। कुछ श्लोकों में यदि पाठपरिवर्तन हुआ है, तो कुछ में उन्हीं शब्दों का स्थान परिवर्तन मात्र हुआ है । " 91 आगे, हम ध्यान के सन्दर्भ में तन्त्र-युग का विवेचन करेंगे। किन्तु इसके पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि इन दोनों ग्रन्थों पर, विशेष रुप से इनके पिण्डस्थ आदि चार ध्यानों, पार्थिवी आदि पांच धारणाओं, प्राणायाम आदि पर हठयोग और तन्त्र का प्रभाव है ।
तान्त्रिक - युग (तेरहवीं शती से सत्रहवीं शती तक)
हमने अपनी पूर्व विवेचना में यह स्पष्ट किया था कि जैनधर्म में तान्त्रिकसाधना का युग तेरहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक रहा, किन्तु हम देखते हैं कि हिन्दू और बौद्ध-तन्त्र का प्रभाव जैन - परम्परा में उसके पूर्व ही प्रारम्भ हो गया
था।
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सर्वप्रथम 'अंगविज्जा' नामक ग्रन्थ में कुछ मन्त्र और उनकी साधनाओं का उल्लेख मिलने लगता है। 'अंगविज्जा' का काल विद्वानों ने ईस्वी सन् चौथी - पांचवी शती के आसपास माना है, परन्तु डॉ. सागरमल जैन द्वारा लिखी गई पुस्तक 'जैनधर्म और तान्त्रिक साधना' में लिखा गया है – ' मथुरा के जैन - अंकनों में एक नग्न किन्तु हाथ में कम्बल लिए हुए मुनि को आकाशमार्ग से गमन करते प्रदर्शित किया गया है। जैन - साहित्य में भी जंघाचारी और विद्याचारी मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जैन - परम्परा में ईसा की दूसरी शताब्दी से
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प्रस्तुत संदर्भ ज्ञानार्णवग्रन्थ की प्रस्तावना से उद्धृत, पृ. 47
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