Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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हिन्दू और बौद्ध-परम्परा के प्रभाव से ही आया है और यह स्पष्ट है कि जैनपरम्परा में विविध प्रकार के यंत्र, मंत्र और तंत्र, जो अस्तित्त्व में आए हैं, वे मूलतः उसकी आध्यात्मिक-परम्परा के प्रतीक न होकर लौकिक-परम्परा के ही प्रतीक हैं और उन पर हिन्दू तथा बौद्ध-तंत्रों का प्रभाव स्पष्टता से देखा जाता है।
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में तान्त्रिक-साधना का प्रभाव मुख्यतः दिगम्बर–सम्प्रदाय में भट्टारकों और श्वेताम्बर–सम्प्रदाय में यतियों के माध्यम से ही आया है और उन्होंने तंत्र-मंत्र की साधना को मुख्य रुप से व्यक्ति के भौतिककल्याण को दृष्टि में रखकर ही प्रसारित किया। यद्यपि जैन–परम्परा के अस्तित्त्व को बचाने में ये तान्त्रिक–साधनाएँ सफल तो रहीं, किन्तु इससे जैन-साधना का जो आध्यात्मिक-पक्ष था, वह विकारग्रस्त हो गया। आत्मविशुद्धि के स्थान पर भौतिक-उपलब्धियाँ ही साधना का मुख्य आधार बन गई और ध्यानादि साधना के माध्यम से चित्त-विशुद्धि गौण हो गई। इस तान्त्रिक प्रभाव के परिणामस्वरुप जैन देवमंडल में भी अनेक यक्ष, यक्षिणियाँ, विद्यादेवियाँ, भैरव, भौमिया, माणिभद्र, पद्मावती आदि शासनदेवता तीर्थंकरों की अपेक्षा भी अधिक पूजनीय बन गए।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि जहाँ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के ध्यानाध्ययन (ध्यानशतक) में ध्यान का जो आध्यात्मिक विशुद्ध-स्वरुप था, वह कालान्तर में इन तान्त्रिक-साधना की प्रक्रियायों में विकारग्रस्त बन गया। हम निःसंदेह यह कह सकते हैं कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का ध्यानाध्ययन (ध्यानशतक) आध्यात्मिकपरम्परा के अनुसार ध्यान-आत्मविशुद्धि का ही साधन है, वहाँ परवर्तीकाल में इस ध्यान-साधना को भौतिक-कल्याण और मंत्र-तंत्र से जोड़कर विकृत ही बनाया गया है।
अन्त में, डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में – उत्तराध्ययनसूत्र 100 और दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो भिदविद्या, स्वरविद्या, स्वप्नलक्षण,
100 छिन्नं सरं भोममन्तलिक्खं सुमिणं लक्खणदण्डवत्थुविज्ज। अंगवियारं सरस्स विजयं जो विज्जाहिं न जीवइ स भिक्खू।। - उत्तराध्ययन 15/7,8 101 आयार-पन्नति धरं दिट्ठिवाय
......... - दशवैकालिक 8/50-51
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