Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 428
________________ 402 अंगविद्या, नक्षत्रविद्या, निमित्तविद्या, मन्त्रविद्या और भैषज्यशास्त्र के अनुसार जीवन जीता है, वह मुनि नहीं है। उनका उपदेश भी गृहस्थों को न करें। इससे स्पष्ट रुप से यह फलित होता है कि वैयक्तिक-वासनाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की विद्याओं की साधना को जैन आचार्यों ने सदैव ही हेय-दृष्टि से देखा है। 102 यशोविजययुग (ईसा की सत्रहवीं से उन्नीसवीं शती तक) - ईसा की सत्रहवीं शती से उन्नीसवीं शती तक का युग यशोविजययुग के नाम से जाना जाता है। जिनशासनरुपी आकाशमंडल में अनेकानेक झिलमिल सितारों ने अपनी ज्ञानरुपी आभा से मानव-जगत् को प्रकाशित किया। इनमें आचार्य कुन्दकुन्द जिनभद्र, उमास्वाति, जिनसेन हरिभद्र शुभचन्द्र, हेमचन्द्र और यशोविजय आदि प्रमुख हैं। यशोविजयजी ने आगम-परम्परा को जीवित रखते हुए अपनी प्रज्ञा द्वारा संस्कृत, प्राकृत तथा गुजराती भाषा में साहित्य का सर्जन किया। उपाध्याय यशोविजयजी विलक्षण प्रतिभासम्पन्न महापुरुष थे। उन्होंने करीब 110 ग्रन्थों की रचना की। 109 उनका लेखनकार्य सिर्फ जैनदर्शन तक ही सीमित न रहकर अन्य दर्शनों के ग्रन्थों की टीका के रुप में भी हुआ। उन्होंने प्रत्येक छोटी-छोटी बात को इतनी सरलता से प्रतिपादित किया, जिससे मंदबुद्धि जीव भी उसको आत्मसात् कर सके। आपने आगमों का गहन अध्ययन किया, जिसके परिणामस्वरुप एक नवीन आध्यात्मिक-पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ। जिनशासन में यशोविजयजी बहुश्रुत दार्शनिक, प्रखर न्यायाचार्य काव्य-मीमांसक तथा साहित्य-सर्जक के रुप में प्रसिद्ध हैं। आपकी सूक्ष्म प्रज्ञा के फलस्वरुप ही जैन-परम्परा में आपको 'लघु हरिभद्रसूरि' का विरुद् प्राप्त हुआ था। 04 102 जैनधर्म और तान्त्रिक साधना – डॉ. सागरमल जैन, पृ. 4-5 103 प्रस्तुत वाक्यांश उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रंथ' के संपादकीय से उद्धृत, पृ. 7 104 वही, पृ.7 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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