Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
255
'ध्यानशतक' के अन्तर्गत तत्त्वार्थसूत्र की तरह ध्यान के आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल -इन चार प्रकारों का उल्लेख किया गया है और साथ ही इन चारों ध्यानों के चार -चार भेद भी कहे गए हैं।
1. आर्तध्यान का स्वामी -
तत्त्वार्थसूत्र' तथा ध्यानशतक इन दोनों ग्रन्थों के अभिप्राय से यह स्पष्ट होता है कि आर्तध्यान छठवें गुणस्थान तक ही संभव है, अर्थात् आर्तध्यान अविरत (मिथ्यादृष्टि), देशविरत (श्रावक) और प्रमत्त-संयत (छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि) को होता है। उपर्युक्त सभी अवस्थाओं में प्रमाद ही मूल कारण है, अतः श्रमणों तथा श्रावकों को प्रमाद का त्याग अवश्य करना चाहिए। गुणस्थान के आधार पर असंयमी-अविरत (मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि) कथंचिद् संयमी-देशविरतं और प्रमादसहित संयमी द्वारा किए जाने वाला आर्तध्यान ही प्रमाद का हेतु है, अतः श्रमणों के आर्तध्यान का त्याग करना चाहिए, परन्तु प्रमत्तसंयतों को उदय की तीव्रता से आर्तध्यान के निदान भेद को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान रहते हैं।' 'तत्त्वार्थवार्तिक' 6 में भी यही लिखा है कि प्रमत्तसंयतों में 'निदान' नामक आर्तध्यान का अभाव होता है, शेष आर्त्तध्यानों की सत्ता संभव है।
हरिवंशपुराण' में भी केवल इतना ही लिखा है कि आर्त्तध्यान छह गुणस्थान भूमिवाला है, अर्थात् छह गुणस्थानों में ही होता है। ‘ज्ञानार्णव' में भी यही लिखा है कि आर्तध्यान ‘षड्गुणस्थानभूमिक' वाला है और इसका भी निर्देश है कि
' तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानाम् । - तत्त्वार्थसूत्र (दि.) 9/34, (श्वे.) 9/35 * तदविरय-देसविरया-पमायपरसंजयाणुगं झाणं। सव्वप्पमायमूलं वज्जेयव्वं जइजणेणं। - ध्यानशतक, 18
तत्राविरत-देशविरतानां चतुर्विधमार्तं भवति असंयमपरिणामोपेतत्वात् । प्रमत्तसंयतानां तु निदानवय॑मन्यदार्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात् कदाचित् स्यात्।। - सर्वार्थसिद्धि, 9/34 कदाचित प्राच्यमार्तध्यानत्रयं प्रमत्तानाम। निदानं वर्जयित्वा अन्यदार्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात् कदाचित् प्रमत्तसंयतानां भवति - तत्त्वार्थवार्तिक, 9/34/1 7 अधिष्ठानं प्रमादोऽस्य, तिर्यग्गतिफलस्य हि। परोक्षं मिश्रको भावः, षड्गुणस्थानभूमिकम् ।। - हरिवंशपुराण, सर्ग 56, श्लो.18
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org