Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्तर्गत पदस्थ-ध्यान को प्रथम एवं पिण्डस्थ-ध्यान को द्वितीय श्रेणी में रखा गया है।
'ज्ञानसार' में रूपातीत-ध्यान के अतिरिक्त पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान का वर्णन मिलता है।
'सिद्धहेमशब्दानुशासन-बृहद्वृत्ति' के अन्तर्गत प्रणिधान के संबंध में पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत आदि चार भेदों का उल्लेख मिलता है।128 इन चारों भेदों का विस्तार से विवेचन इस प्रकार है :
1. पिण्डस्थ-ध्यान का स्वरूप - पिण्ड, अर्थात् देह या शरीर। स्थ, अर्थात् उसमें स्थित या उसमें रहने वाली, अतः पिण्डस्थ का सीधा अर्थ होता है -शरीर में विद्यमान आत्मा।
सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सशरीर आत्मा का ध्यान ही पिण्डस्थध्यान कहा जाता है। शरीर का सहारा अथवा आलम्बन लेकर चित्त को स्थिर किया जाने वाला ध्यान ही पिण्डस्थ ध्यान है।129
'श्रावकाचारसंग्रह' के अनुसार, स्वच्छ स्फटिक के समान निर्मल, पवित्र देह, ज्ञान-दर्शन-परमसुख तथा वीर्ययुक्त, अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि आदि अष्ट-महाप्रातिहार्य से सुशोभित, सुर-नर से पूजित, चार घातीकर्मों के नष्ट हो जाने से उत्पन्न अनंत-ज्ञान, अनन्त-दर्शन के स्वामी चौंतीस अतिशय एवं पैंतीस वाणी के गुणों से युक्त अरिहंत-परमात्मा का जिसमें ध्यान किया जाता है वह पिण्डस्थ-ध्यान कहलाता है।130
127 ज्ञानसार - पद्मसिंहमुनि विरचित, 18/28 प्रस्तुत प्रमाण जैन एवं बौद्ध योग'-डॉ. सुधा जैन पुस्तक से उद्धृत, पृ.200 128 प्रस्तुत संदर्भ – 'ध्यानविचार-सविवेचन' पुस्तक से उद्धृत, पृ. 155 129 ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ।। - योगशास्त्र, श्लोक-8, पृ.7 130 शुद्धस्फटिकसंकाशं प्रातिहार्यष्टकान्वितम् ।
यद् ध्यायतेऽर्हतो रूपं तद ध्यानं पिण्ड संज्ञकम्।। - श्रावकाचार संग्रह, भा.-2, पृ.457
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