Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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अव्यथ, असम्मोह, विवेक तथा व्युत्सर्ग-लक्षण तथा क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव और मार्दव -ये शुक्लध्यान के आलम्बन कहलाते हैं। जैसे धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं, वैसे ही शुक्लध्यान की भी अनुप्रेक्षाएँ हैं, वे इस प्रकार हैं - अनंतवृत्तिता, विपरिणामता, अशुभता और अपाय। इन सबका विस्तृत रुप से वर्णन पूर्व में किया गया है।
4. समवायांगसूत्र में ध्यान -
'समवाय'-यह द्वादशांगी का चौथा अंग है। इसके चौथे समवाय में ध्यान के चारों भेदों का संक्षिप्त वर्णन मिलता है। धर्मध्यान के चार भेदों में से संस्थानविचय का बहुत ही विस्तार से उल्लेख मिलता है। प्रस्तुत सूत्र के बत्तीसवें समवाय में योगसंग्रहों की विवेचना की गई है, जो साधक-जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध होती है। इसमें 'ध्यान-संवरयोग' नामक अट्ठाइसवें योग का भी उल्लेख है। इसका आशय यह है कि धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान की दिशा में विकास करने के लिए साधक को आस्रव-द्वारों का संवरण करना आवश्यक है।
5. भगवतीसूत्र में ध्यान -
'भगवतीसूत्र' को व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के नाम से भी जाना जाता है। यह द्वादशांगी का पांचवा अंग हैं। इसमें गौतम गणधर द्वारा पूछे गए प्रश्नों के जो उत्तर भगवान् महावीर ने दिए थे, उनका संकलन है। यह विशालकाय आगमग्रंथ है। यह ग्रन्थ 15000 श्लोक-परिमाण है और इसमें 36,000 प्रश्नोत्तर संकलित हैं। इसमें तप के अन्तर्गत आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्लध्यान का विस्तार से वर्णन प्राप्त है।"
15 समवायांगसूत्र, समवाय 4.20, पृ. 11 16 वही, समवाय 32, पृ. 93 17 झाणे चउविधे पन्नते, तं जहा – अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, 25 श., 7 उद्दे. 237 सूत्र, पृ. 506
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