Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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शिष्यों का वियोग सहना पड़ा था । हरिभद्र की महानता और धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन तो उनके युग की इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है। आचार्य हरिभद्र की महानता तो इसी में निहित है कि उन्होंने शुष्क वाग्जाल तथा घृणा एवं विद्वेष की उन विषम परिस्थितियों में भी समभाव, सत्यनिष्ठा, उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया। यहाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि समन्वयशीलता और उदारता के ये गुण उन्हें जैन- दर्शन की अनेकान्तदृष्टि के माध्यम से विरासत में मिले थे, फिर भी उन्होंने अपने जीवन - व्यवहार और साहित्य-सृजन में इन गुणों को जिस शालीनता के साथ आत्मसात् किया था, वैसे उदाहरण स्वयं जैन - परम्परा में भी विरल ही हैं । "38
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हम पूर्व में आचार्य हरिभद्र के जीवन - वृत्तान्त और उनके द्वारा लिखे गए ग्रन्थों का तथा उसमें भी विशेष रुप से उनके ध्यान तथा योग - सम्बन्धी ग्रन्थों का वर्णन कर चुके हैं, फिर भी यहाँ हरिभद्रयुग के प्रसंग में हम पं. सुखलालजी की 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' डॉ. सागरमल जैन 'पंचाशक - प्रकरण की भूमिका' एवं 'आचार्य हरिभद्र का अवदान' साध्वी प्रियदर्शनाजी की "जैन - साधना पद्धति में ध्यानयोग' और साध्वी उदितप्रभाजी की 'जैनधर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम' आदि पुस्तकों को आधार बनाकर संक्षिप्त में उनके ध्यान तथा योग संबंधी ग्रन्थों को प्रस्तुत करेंगे।
आचार्य हरिभद्र ने जैन आगमों पर अनेक टीकाएँ, वृत्तियाँ आदि लिखीं और साथ ही साथ उन्होंने जैनयोग पर स्वतन्त्र साहित्य की रचना भी की थी, जैसे योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका, योगशतक आदि ।
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1. योगदृष्टिसमुच्चय
प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत- भाषा में लिखा हुआ है। इसके 227 पद्य हैं। इसमें सबसे पहले योग-साधना में विकास हेतु तीन अलग-अलग स्तरों पर योगसाधना
38 पंचाशक प्रकरण - डॉ. दीनानाथ शर्मा, पुस्तक की भूमिका ( डॉ.सागरमल जैन) से उद्धृत, पृ.8
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