Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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मिथ्यादर्शन के भेद ध्याता के शंकादि दोष बतलाए हैं और कहा है कि मिथ्यादृष्टि साधक न तो ध्यान, न ही स्व-पर विवेक और न कोई तप कर सकता हैं।64
पाँचवां सर्ग 'योगिप्रशंसा' नाम वाला है। जिसमें योगियों के स्वरुप जैसे - मन की स्थिरता, तप, निःसंगता, पवित्र-आचरण आदि गुणों का निरुपण किया गया है। साथ ही ऐसे योगियों की प्रशंसा भी की गई है। इस सर्ग में उनतीस श्लोक हैं।
'दर्शनविशुद्धि' नामक छठवां सर्ग अट्ठावन श्लोक-परिमाण वाला है। इसके अन्तर्गत कहा है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से ही मोक्ष संभव है। तदनन्तर, सम्यग्दर्शन का स्वरुप, उसके भेद एवं दोषों की चर्चा की गई है, साथ ही इसमें जीव, अजीवादि सात तत्त्वों में से जीव, अजीव और बन्ध का वर्णन है।
सातवें सर्ग में सम्यग्ज्ञान का लक्षण, भेद, केवलज्ञान का स्वरुप तथा उसकी महत्ता का वर्णन है। 7 'अहिंसावत' नामक आठवां सर्ग है, इसमें सम्यकचारित्र का स्वरुप एवं उसके भेद, अहिंसादि व्रतों का स्वरुप, उनका फल, हिंसा के भेद, अहिंसा की स्तवना, हिंसा के विकराल स्वरुप तथा अहिंसा के फल की व्याख्या की गई है। इस सर्ग के सत्तावन श्लोक हैं।68 ___नौवें सर्ग से बाईसवें सर्ग तक क्रमशः सत्यव्रत, चौर्यपरिहार, कामप्रकोप, स्त्रीस्वरुप, मैथुनसंसर्ग, वृद्धसेवा, परिग्रहदोष, आशापिशाचिनी, अक्षयविषयनिरोध, त्रितत्त्व, मनो- व्यापारप्रतिपादन, रागादिनिवारण और साम्यवैभव आदि विषयों का वर्णन किया गया है।
64 यच्चतुर्धा मतं तज्झैः ....न ध्यानं न विवेचनं न च तपः कर्तुवराकाः क्षमाः। -वही, 4सर्ग, श्लोक 284-353, पृ. 97-122 65 अर्थ निर्णीततत्त्वार्था धन्याः ......पुरूष । धन्यास्तु ते दुर्लभाः।। - वही, 5सर्ग, श्लोक 354-382, प्र.123-133 66 सुप्रयुक्तैः स्वयं साक्षात् ....दर्शनाख्यं सुधाम्बु।। - वही, 6सर्ग, श्लोक 383-448, पृ. 133-158 67 त्रिकाल गोचरानन्तगुण .....नोच्छिनत्त्यन्धकारम।। - वही, 7सर्ग, श्लोक 449-471, पृ. 158-168 68 यद्विशुद्धेः परधाम ......विद्धयहिंसा प्रधानम् ।। - वही, 8 सर्ग, श्लोक 472-530, पृ. 168-187
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