Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ज्ञानार्णव (पीठिका) के प्रथम सर्ग के सोलहवें श्लोक में शुभचन्द्राचार्य, जिनसेन आचार्य को सम्मानपूर्वक स्मरण करते हुए कहते हैं कि -सिद्धान्त, न्याय
और व्याकरण के पारंगत विद्वान भी जिनसेनाचार्य के सान्निध्य को पाना अपना अहोभाग्य समझते तथा उनके वचनामृत को आदरपूर्वक स्वीकार करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि शुभचन्द्र जिनसेन के परवर्ती थे। अतः इनका काल ईसा की 11 वीं 12 वीं शताब्दी ही प्रामाणिक. लगता है।
ज्ञानार्णव में ध्यान-योग -
यथा नाम तथा गुण के अनुरुप प्रस्तुत ग्रन्थ में, पाठकों को अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त हो -इस अपेक्षा से ज्ञानार्णव ज्ञान का समुद्र ही प्रतीत होता है। ग्रन्थकार स्वयं ने इसे 'ध्यानशास्त्र' के नाम से भी सम्बोधित किया। यह नाम भी संगत लगता है, क्योंकि इसका मुख्य विषय ध्यान ही है और इसमें ध्यान के अन्तर्गत ही विभिन्न विषयों का वर्णन मिलता है। इसके प्रत्येक सर्ग के अन्त में पुष्पिका के रुप में 'योगप्रदीपाधिकार' नाम मिलता है। योग और ध्यान समान अर्थ वाले शब्द हैं। ज्ञानार्णव ग्रन्थ की प्रस्तावना में स्पष्ट रुप से कहा गया है -प्रस्तुत ग्रन्थ ध्यानयोग के संदर्भ में दीपक दिखलाने का काम करता है, अतः इसे 'योगप्रदीपाधिकार' कहने से भी उसकी सार्थकता प्रगट होती है। ध्यान की विशिष्टता से युक्त यह ज्ञानार्णव 39 सर्गों में बंटा हुआ है। यह ग्रन्थ अनुष्टुप, मालिनी, स्त्रग्धरा, शिखरिणी, मंदाक्रान्ता, इन्द्रव्रजा, शार्दूलविक्रीड़ित आदि विभिन्न छन्दों में प्रणीत है। प्रस्तुत ग्रन्थ सरसता, प्रौढ़ता, गंभीरता और अद्भुत
" जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रैविद्यवन्दिताः । योगिभिर्याः समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये।। - ज्ञानार्णव, 1/16 58 ज्ञानार्णवमिमं वक्ष्ये सतामानन्दमन्दिरम् ।। ज्ञानावर्णस्य माहात्म्यं चित्ते ....|| - ज्ञानार्णव, श्लोक 1 और 2230 59 इति जिनपति सूत्रात्सारमुद्धृत्य किंचित्, स्वमतिविभवयोग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीत। - वही 2229 6 प्रस्तुत सन्दर्भ "ज्ञानार्णव" प्र. जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर, की प्रस्तावना से उद्धृत, पृ. 17
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