Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
380
पर प्रकाश डाला गया है-1. इच्छायोग, 2. शास्त्रयोग और 3. सामर्थ्ययोग 39 1. इच्छायोग - इच्छायोग, अर्थात् जो साधक अपने निजस्वरुप की प्रतीति की इच्छा रखनेवाला होता है, जिन-आगमों का श्रवण करता है, परिणाम स्वरुप योगमार्ग पर प्रवृत्त तो हो जाता है, परन्तु आलस्य, प्रमाद के कारण योगोपलब्धि से वंचित रहता है, यह योगसाधना का पहला स्तर है। 2. शास्त्रयोग - शास्त्रयोग, अर्थात् श्रद्धा भाव से युक्त, प्रमाद से रहित, आगमों में उल्लेखित विधि के अनुसार जो साधक आराधना-साधना करता है, उसका योग अविकल अखण्डता के कारण निरन्तर गतिमान रहता है, वह शास्त्रयोग है। यह योगसाधना का दूसरा स्तर है। 3. सामर्थ्ययोग – सामर्थ्ययोग, अर्थात् शक्ति के उद्रेक-जागरण प्रबलता के कारण जिसका विषय शास्त्र से भी अतिक्रान्त है, उत्कृष्ट है, वह उत्तमोत्तम योग सामर्थ्ययोग कहा जाता है। यह योग साधना का अन्तिम स्तर है। सामर्थ्ययोग ही साधक को सर्वज्ञता या आत्मानुभूति को प्राप्त करवाता है। सामर्थ्ययोग भी दो भागों में विभक्त है -1. धर्मसन्यासयोग और 2.योगसन्यास। 40 यह धर्मसन्यासयोग अपूर्वकरण अर्थात् ग्रन्थिभेद के समय श्रेणी चढ़ाते समय सिद्ध होता है और दूसरा योगसन्यास आयोज्य कर्म के बाद घटित होता है। इसके बाद आचार्य हरिभद्र ने आत्म-विकास के तरतम भावों से युक्त आठ प्रकार की योगदृष्टियों का वर्णन किया
इन आठ योगदृष्टियों के नाम इस प्रकार हैं - 1.मित्रा, 2. तारा, 3. बला, 4. दीप्रा, 5. स्थिरा, 6.कान्ता, 7.प्रभा और 8. परा । आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टियों के स्वरुप का वर्णन करते हुए कहा है –“सदृष्टा पुरुष की दृष्टि बोध-ज्योति की विशदता के विकास की अपेक्षा से घास, कण्डे तथा काष्ठ के अग्निकण दीपक की प्रभा, रत्न, तारे, सूर्य और चन्द्र की आभा के सदृश क्रमशः मित्रा, तारा, बला, दीप्रा,
कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः। विकलोधर्मयोगो यः स इच्छायोग उच्यते।। शास्त्रयोगस्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिनः । श्राद्धस्य तीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तथा।।
शास्त्रसन्दर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः । शक्त्युरेकाद्विशेषेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तमः ।। -योगदृष्टिसमुच्चय 3-5 40 द्विधाऽयं धर्मसन्यास-योगसंन्याससंज्ञितः ... || - योगदृष्टिसमुच्चय, 9
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org