Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
376
प्रस्तुत सूत्र के छब्बीसवें आययन में श्रमणजीवन की दिनचर्या का वर्णन करते हुए भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि श्रमण दिवस तथा रात्रि के दूसरे प्रहर में ध्यानसाधना करे। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस काल में ध्यान-साधना श्रमणजीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग थी। इसी सूत्र के उनतीसवें अध्ययन का नाम सम्यक पराक्रम है। एक स्थान पर भगवान् महावीर गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहते हैं कि मन की एकाग्रता से चित्तवृत्ति का निरोध होता है। उत्तराध्ययन के तीसवें अध्ययन का नाम 'तवमग्गगई' है। यहाँ तप के बाह्य और आभ्यन्तर -ये दो भेद किए हैं। आभ्यन्तर-तप के अन्तर्गत ध्यान और कायोत्सर्ग की विवेचना की गई है। साथ ही यह कहा गया है कि आर्त और रौद्र अशुभ ध्यान है। इन दोनों को त्यागकर साधक को धर्म और शुक्लध्यान की आराधना करनी चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो उसका यह ध्यान आन्तरिक तप है।32 ध्यान अन्तःकरण का संशोधनात्मक तत्त्व है, इसलिए ध्यान भी आभ्यन्तर तप की कोटि में गिना जाता है। इसी सूत्र में लेश्याओं का भी बहुत ही विस्तार से उल्लेख किया गया है। शुक्ललेश्या का प्रगटीकरण कैसे होता है ? उसका वर्णन करते हुए लिखा है - आर्त्त-रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान को ध्याता हुआ शुक्ल- ध्यान को प्राप्त कर लेता है। कषायरहित होकर समितियों, गुप्तियों का पालन करते हुए जितेन्द्रिय योगों से युक्त साधक शुक्ललेश्या का अधिकारी बन जाता है। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में भी ध्यान का वर्णन मिलता है।
29 दिवसस्स चउरो भागे कुज्जा भिक्खू वियक्खणो। तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिणभागेसु चउसुवि।
पढमं पोरिसिं सज्झाय बीयं झाणं झियायई। तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीए सज्झाय।। -वही, 26/11-12 30 रत्तिं पि चउरो भागे भिक्खू कुज्जा वियक्खणों। तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभाएसु चउसुवि।।
पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई। तइयाए निद्दमोक्खं तु चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं। - वही, 26/17-18 3। एगग्गमणसंनिवेसणायाए णं चित्तनिरोहं करेइ।। - वही, 29/25, पृ. 501 32 अट्टरूद्दाणि वज्जिता झाएज्जा सुसमाहिए। धम्मसुक्काइं झाणाई झाणं तं तु बुहा वए।।
- वही 30/35 33 अट्टरूद्धाणि वज्जिता धम्मसुक्काणि झायए। पसन्तचित्ते दन्तप्पा समिए गत्ते य गत्तिहिं।। सरागे वीयरागे वा उवसन्ते जिइन्दिए। एयजोगसमाउत्तो सुक्कलेसं तु परिणमे।।
- वही -34/31-32
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org