Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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• ध्यान से विरक्ति होती है। कायोत्सर्ग से वीतरागता प्रकट होती है ।
ध्यान चित्तवृत्ति की एकाग्रता है और कायोत्सर्ग चित्तवृत्तियों के विलय की
अवस्था है।
• ध्यान कारण है, कायोत्सर्ग उसका कार्य है।
• ध्यान में निज के अविनाशी - स निज
न - स्वरूप का अनुभव होता है ।
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- स्वरूप का चिन्तन होता है, जबकि कायोत्सर्ग में
अतः, ध्यान के बिना कायोत्सर्ग और कायोत्सर्ग के बिना ध्यान संभव नहीं । इस प्रकार, ध्यान और कायोत्सर्ग - दो अलग-अलग स्थितियाँ होने पर भी वे एक दूसरे से अभिन्न ही हैं। यही कारण है कि वर्त्तमान में जैन - परम्परा में कायोत्सर्ग को ही ध्यान कहा जाता है ।'
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कायोत्सर्ग एवं समाधि -
देह के प्रति निर्ममत्व तथा आत्मा की ओर अभिमुख होने की निर्मल - पवित्र प्रक्रिया का नाम है - कायोत्सर्ग । दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि आत्मजगत् के अवलोकन की एक विशिष्ट प्रक्रिया का सूचक है – कायोत्सर्ग |
'षडावश्यक' में कायोत्सर्ग का अपना एक स्वतंत्र एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है, साथ ही 'उत्तराध्ययनसूत्र' के तीसवें अध्ययन के तीसवें सूत्र में तप के वर्गीकरण में आभ्यन्तर तप के छह भेद बताए गए हैं। उसमें ध्यान और कायोत्सर्ग का भिन्नभिन्न रूप से उल्लेख किया गया है । '
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192 'ताव कायं ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि । आवश्यक सूत्र
193 देखें – कायोत्सर्ग, कन्हैयालालजी लोढ़ा, प्राकृत भारती, जयपुर, 2007, भूमिका - डॉ.सागरमल जैन
194 झाणं च विउस्सग्गो एसो अब्भिन्तरो तवो। - उत्तराध्ययन- 30/30
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