Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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1. आचारांगसूत्र में ध्यान
ऐतिहासिक - दृष्टि से सर्वप्रथम हमें द्वादशांगी के प्रथम ग्रन्थ 'आचारांग' में भगवान् महावीर की ध्यान-साधना के संबंध में अनेक संकेत मिलते हैं। महावीर को 'ध्यानयोगी' की उपमा से विभूषित किया गया है। आचारांग से यह ज्ञात होता है कि महावीर के जीवन के साधनाकाल का अधिकतम समय ध्यान-साधना में ही व्यतीत हुआ था । "
स्थान-स्थान पर कायोत्सर्ग तथा ध्यान में निमग्न होकर वे स्व-स्वरुप का चिन्तन करते रहते थे। उन्होंने चित्तवृत्तियों की एकाग्रता के साथ-साथ दृष्टि के स्थिरीकरण का अभ्यास भी किया था । इसके परिणामस्वरूप वे अनिमिष होकर भीतों पर ध्यान केन्द्रित करते थे । इस प्रक्रिया के दौरान उनके नेत्र रक्तवर्णी होकर बाहर निकल आते थे, जिन्हें देखकर लोग डर जाते थे । भय से आक्रान्त होकर बच्चों का समूह हंत! हंत! कहकर जोर-जोर से चिल्लाता और दूसरे बच्चों को भी अपने पास बुला लेता था। दूसरे शब्दों में, वे उत्कृष्ट आसनों में अवस्थित होने के साथ ही तिर्यक् देखते हुए समाधि में अनाकांक्ष होकर रहते थे। 10
महावीर कभी घरों में, कभी वनों में, कभी कुम्भकार - शाला या लोहकारकभी - कभी आरामगृहों, गांवों,
शाला में, कभी सभाओं, प्याऊओं, दुकानों में, तो नगरों, श्मशानों आदि में, कभी-कभी तो वे वृक्ष के नीचे ही ध्यानमग्न हो जाते थे।" उन्होंने अपने साधनाकाल में अनेक अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों को समभाव से सहा । 12
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अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुभासज्ज अंतसो झाइ ।
अह चक्खु-भीया सहिया, तं 'हंता हंता' बहवे कंदिसुं आयारो, प्रथमश्रुतस्कंध, अध्याय-9, उद्दे. 1 गा. 5, पृष्ठ 320 10 अवि झाइ से महावीरे आसणत्थे अकुक्कुएझाणं । उड्ढ अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे । - वही ? 1/9/4/14 '' आवेसण सभा-पवासु पणियसालासु एगदा वासो । अदुवा पलियट्ठाणेसु पलालपुंजेसु एगदावासो ।
आंगतारे आरामागारे गामे णगरेवि एगदा वासो । सुसाणे सुण्णगारे वा, रूक्खमूलेवि एगदा वासो।। - वही, 1/9/2 / 2-3
क)
एतेहिं मुणी सयणेहिं, समणे आसी पतेरसवासे ।
राई दिवंपि जयमाणे अप्पमत्ते समाहिए झाति ।। -आयारो, प्रथमश्रुतस्कंध, अध्याय-9, उद्दे. 2 गा. 4, पृष्ठ 328
ख) अयमंतरंसि को एत्थ अहमंसित्ति भिक्खु आहट्टु |
अयमुत्तमे से धम्मे, सिणीए स कसाइए झााति । । - वही, प्र.श्रुतस्कंध, अ.9, उ.2, गा. 12, पृ. 330
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