Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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दो चरण तेरहवें गुणस्थान में और अंतिम दो चरण चौदहवें गुणस्थानवी जीवों में पाए जाते हैं। इस प्रकार, चारों ध्यानों के स्वामियों की चर्चा समाप्त होती है।
धर्मध्यान में पिण्डस्थ-पदस्थ-रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का स्वरूप -
आगमेतर ग्रन्थ-साहित्य में अर्थात् योगशास्त्र115. योगसार 16, द्रव्यसंग्रह (टीका)117, ज्ञानार्णव 18, ध्यानस्तव 119. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा 120, ध्यानदीपिका 121, ध्यानविचार 122, गुणस्थानक्रमारोह 23. ध्यानसार 124, स्वाध्यायसूत्र125 आदि ग्रन्थों के प्रणेताओं ने ध्येय की दृष्टि से धर्मध्यान को चार भागों में विभाजित किया है -
1. पिण्डस्थध्यान, 2 पदस्थध्यान, 3 रूपस्थध्यान और 4. रूपातीतध्यान ।
'स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा' में हमें उपर्युक्त चार ध्यानों के क्रम में अन्तर दृष्टिगोचर होता है।126
115 पिण्डस्थं च पदस्थं, रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः। -योगशास्त्र-7/8 16 जो पिंडत्थु पयत्थु बुह रूपस्थु वि जिणउत्त।
रूवातीतु मुणेहि लहु जिमि परू होहि पवित्तु।। - योगसार, 98 17 पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम।
रूपस्थं सर्वचिद्रुपं रूपातीत निरंजनम् ।। - द्रव्यसंग्रह (टीका) 48 ॥8 पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम्।
चतुर्दा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करैः ।। - ज्ञानार्णव-34/1 ।। पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम्। - ध्यानस्तव, श्लोक-24 120 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पृ. 226 121 पिण्डस्थ च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम्।
इत्यन्यच्चापि सद्ध्यानं ते ध्यायन्ति चतुर्विधम् ।। – ध्यानदीपिका, श्लोक-137, पृ.8 122 पिण्डत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववज्जियसरूवं ।
तत्तं परमिट्ठिमयं गुरूवइ8 थुणिस्सामि।। – ध्यानविचार-सविवेचन, पृ. 147 123 पिण्डस्थादि चतुर्धा या धर्मध्यान प्रकीर्तितम् ।। – गुणस्थानकक्रमारोहण, 35 124 पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । ' ध्येयचतुर्विधं प्रोक्तं धर्म्यध्यानपथाध्वगैः ।। - ध्यानसार, 116 125 पिण्डस्थ-पदस्थ-रूपस्थ-रूपातीत-लक्ष्यानुरूपमपि पुनश्चतुर्विधम् ।। -स्वाध्यायसूत्र, अ.10/12 126 पदस्थं मन्त्रवाक्यस्य. .. || -स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, पृ. 370
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