Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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इस ध्यान की सिद्धि के लिए पांच धारणाओं का चिन्तन किया जाता है।139
1. पार्थिवी-धारणा, 2. आग्नेयी-धारणा, 3. श्वासना-धारणा, 4. वारूणीधारणा, 5. तत्त्वरूपवती (तत्त्वभू)-धारणा। इनका विस्तार से वर्णन आगे किया जाएगा।
पदस्थ ध्यान का स्वरूप -
पदस्थ, अर्थात् पदों अथवा अक्षरों पर चित्त को एकाग्र करना पदस्थ ध्यान है। इस ध्यान में नानाविध विधाओं, मंत्रों, पदों आदि का आलम्बन लिया जाता है।
'ज्ञानार्णव' में इसके स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा गया है कि निर्मल-पवित्र पदों, शब्दों या स्वर–व्यंजनों अथवा बीजाक्षरों के अवलम्बन द्वारा जो चिन्तन–मनन रूप ध्यान किया जाता है, वह ध्यान पदस्थ-ध्यान कहलाता है।140
_ 'वसुनन्दि श्रावकाचार' में भी इसी बात का समर्थन मिलता है कि एक अक्षर से लेकर विविध रूप के पंच-परमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्रपदों का उच्चारण जिस ध्यान में किया जाता है, वह ध्यान ही पदस्थ कहा जाता है। 141
'योगशास्त्र' में भी इसी बात की पुष्टि की गई है कि महाप्रभावशाली मन्त्राक्षर आदि पवित्र पदों का अवलंबन लेकर जो ध्यान किया जाता है, उसे सिद्धान्त के पारगामी पुरुषों ने पदस्थध्यान के रूप में स्वीकार किया है। 142
139 क) पार्थिवी स्यादथाग्नेयी मारूती वारूणी तथा। तत्त्वभूः पंचमी चेति पिण्डस्थे पंचधारणा।। -योगशास्त्र, 7/9
ख) पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसनावाय वारूणी। तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता यथाक्रमम्।। - ज्ञानार्णव, 37/3 140 पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते।
तत्पदस्थ मत ध्यान विचित्रनयपारगैः ।। - ज्ञानार्णव, 35/1 14। जं झाइज्जइ उच्चारिऊण परमेट्ठिमंतपयममलं।
एयक्खरादि विविहं पयत्थझाणं मुणेयव्वं ।। - वसुनन्दिश्रावकाचार, 464 142 यत्पदानि पवित्राणि समालम्ब्य विधीयते। तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्त पारगैः।। - योगशास्त्र, पृ.8, श्लो.-1
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