Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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इसी प्रसंग में, मात्र दो गाथाओं में आर्त एवं रौद्र ध्यान के चार–चार प्रकारों पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। साथ ही इसमें यह भी लिखा है कि आर्त्त एवं रौद्र-ध्यान अधमगति रूप हैं तथा धर्म और शुक्ल-ध्यान उत्तमगति-रूप हैं, इसलिए भव्यजनों को धर्म एवं शुक्लध्यान में रमण करना चाहिए। तदनन्तर, गाथा क्रमांक 1705-14 में धर्मध्यान के लक्षण, प्रकार, आलंबन आदि का उल्लेख किया गया है। मूलाचार के समान ही इसमें भी धर्मस्थान के चौथे प्रकार संस्थानविचय में बारह अनुप्रेक्षाओं का नाम सहित विस्तार से वर्णन किया गया है। आगे की गाथाओं में यह कहा गया है कि बारह अनुप्रेक्षाएं धर्मध्यान के लिए आलम्बनरूप हैं, जो इनका आलम्बन लेकर ध्यान करता है, उसकी ध्यान में एकाग्रता अखण्ड रहती है। इस सन्दर्भ में तो यहाँ तक कहा गया है कि क्षपक मन से ध्याता जिस ओर देखता है, वही उसका धर्मध्यान का आलंबन हो जाता है। साधक धर्मध्यान से भी आगे अतिशय विशुद्ध लेश्यावाला होकर शुक्लध्यान को ध्याता है और इस शुक्लध्यान के चार प्रकारों का वर्णन गाथा क्रमांक 1873-1884 में किया गया है। तत्पश्चात् कहा गया है कि साधक जैसे-जैसे ध्यान में एकाग्र होता है, वैसे-वैसे कर्म-निर्जरा करता है। अन्त में, ध्यान के महत्त्व को बताते हुए इस प्रकरण को समाप्त किया गया है। 102 भगवती-आराधना में धर्मस्थान के लक्षण आर्जव, लघुता, मार्दव और उपदेश हैं जो स्वाभाविक रूप से धर्मध्यानी में पाए जाते हैं। उसकी आगम-विषयक उपदेश में स्वभावतः रुचि हुआ करती है।103.
ध्यानशतक में भी धर्मध्यान के लक्षणों का उल्लेख गाथा क्रमांक 67 में मिलता है।104 सामान्य तौर से दोनों ग्रन्थों की गाथाओं में शब्द और अर्थ की अपेक्षा से कुछ समानता जरूर दिखती है, फिर भी ध्यानशतक में भगवती–आराधना की
100 पच्चाहरित्त विसयेहि .........रूचीओ दे।। भगवती-आराधना, विजयोदया टीका, गाथा1702-4 10 अर्धवमसरणंमेगतमण्णसंसारलोयमसुइत्तं ......आलंबणे हिं मुणी। – वही, 1710-1867 102 आलंबन च वायण ..... सुणमो जिणवराणं। - भगवती-आराधना, 1869-2164 103 धम्मस्स लक्खणं से अज्जव-लहुगत्त-मद्दवोवसमा।
उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजाओ रूयीओ दे।। - वही, गाथा 1709 104 आगम-उवएसाऽऽणा-णिसग्गओ ...। – ध्यानशतक, गाथा 67
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