Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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अपेक्षा स्थानांगसूत्र से समानता अधिक परिलक्षित होती है 105 और धर्मध्यान के आलम्बनों का वर्णन भी भगवती-आराधना 106 से न करके स्थानांगसूत्र से किया
गया है।107
मूलाचार तथा भगवती-आराधना की विषय-वस्तु में समानता है, मात्र इतना ही नहीं समझना, इससे आगे यह भी जानना है कि कुछ गाथाएँ भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप से उपलब्ध हैं, जैसे -
मूलाचार की 5, 198–200 गाथाएँ – भगवती-आराधना की 1702-04 गाथाएँ समान हैं। मूलाचार की 202-206 गाथाएँ भगवती – आराधना की 1711-15 गाथाएँ समान हैं।
ध्यानशतक और धवलाटीका का तुलनात्मक अध्ययन -
आचार्य वीरसेन स्वामी द्वारा 9वीं शताब्दी में रचित 'धवलाटीका' भी बहुत ही विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, मूल में यह टीका आचार्य भूतबलि-पुष्पदंत (प्रायः ईसा की प्रथम शताब्दी) द्वारा विरचित 'षट्खण्डागम' पर आधारित है। षट्खण्डागम के वर्गणा नामक पांचवें खण्ड में एक कर्म-अनुयोगद्वार है, उसमें दस कर्मभेदों के अन्तर्गत आठवें तपः-कर्म का निर्देश करते हुए तप के बारह प्रकार कहे गए हैं,100 जिनको दो विभागों में विभक्त किया गया है - 1. छह आभ्यन्तर तप और 2. छह बाह्य-तप।
आभ्यन्तर-तप के पांचवें भेद भूत-ध्यान का निरूपण करते हुए आचार्य वीरसेन ने प्रस्तुत टीका में 1. ध्याता, 2. ध्येय, 3. ध्यान और 4. ध्यानफल के रूप में चार अधिकारों का वर्णन किया है। उसी के अनुरूप, वहाँ पहले ध्याता का विचार
105 धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणां पं तं आणारूई, णिसग्गरूई, सुत्तरूई, ओगाढ़रूती।
- स्थानांगसूत्र, स्था.चतु.. उद्दे.प्रथम, सूत्र 66, पृ.224 106 आलंबणं च वायण पुच्छण परियट्टणाणुपेहाओ। धम्मस्स तेण अविरूद्धाओ सव्वाणुपेहाओ। - भगवती आराधना 1710 व 1875 107 धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं तं वायणा पडिपुच्छणापरियट्टणा अणुप्पेहा। -
- स्थानांगसूत्र, स्था.चुत., उद्दे.प्र., सू.67, पृ.224 सं. मुनि मधुकर 108 षटखण्डागम-5, 4, 25-26, पु.-13, पृ. 54
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