Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ध्यानशतक में भावना, देश, काल, आसन-विशेष, आलम्बन, क्रम, ध्येय, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग और फल के रूप में इनकी चर्चा बारह द्वारों में की गई है। 142 आदिपुराण में भी ध्यान सामान्य से सम्बद्ध परिकर्म के सन्दर्भ में देश 143, काल 144. आसनविशेष 145. तथा आलंबन 146 की चर्चा हुई है, जो ध्यानशतक के समरूप है। ध्यानशतक के ध्यातव्य-द्वार में आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानविचय की चर्चा की गई है।147 आदिपुराण में भी इन चारों प्रकारों की चर्चा है,148 साथ ही ध्याता या ध्यान के अधिकारी आदि के सन्दर्भ में भी इनका उल्लेख उपलब्ध है।
4. शुक्लध्यान -
आदिपुराण के अनुसार, शुक्ल और परमशुक्ल - इस प्रकार शुक्लध्यान के दो भेद माने हैं। उनमें छद्मस्थों तथा केवलियों का ध्यान क्रमशः शुक्ल तथा परमशुक्ल माना गया है। 149 यही बात ध्यानशतक में भी मिलती है, अन्तर मात्र इतना है कि वहाँ परमशुक्ल को समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती नामक चौथे शुक्लध्यान के रूप में स्वीकार किया गया है।150
142 झाणस्स भावणाओ देसं काल तहाऽऽसणविसेसं। आलंबणं कमं झाइयव्वयं जे य झायारो।।
तत्तोऽणुप्पेहाओ लेस्सा लिंग फलं च नाऊणं। धम्मं झाइज्ज मुणी तग्गयजोगो तओ सुक्कं ।। -ध्यानशतक 28,29 143 शून्यालये श्मशाने वा जरदुद्यानकेऽपि वा। सरित्पुलिनगिर्यग्रगह्वरे द्रुमकोटरे।।
शुचावन्यतमे देशे .......... || देशादिनियमोऽप्ये...... सोढाशेषपरीषहः ।। - आदिपुराण, 21/57-58, व 76-80 144 न चाहोरात्रसंध्यादिलक्षण कालपर्यय...... कालः स च देशः स्याद् ध्यानावस्था च सामता।। आदिपुराण, 21/81-83 145 शुचावन्यतमे देशे चित्तहारिण्यपातके .........स्थित्वा सित्वाधिशय्य वा। - वही, 21/58-75 146 प्रज्ञापारमितो योगी ध्याता स्याद्धीबलान्वितः । सूत्रार्थलम्बनो धीर: सोढाशेषपरीषह।। - वही, 21/87 147 ध्यानशतक, आज्ञा-45-49, अपाय-50, विपाक-51, संस्थान-52-60 148 आदिपुराण, आज्ञा-21/135-141, अपाय-21/141-142, विपाक-21/143-147, संस्थान-21/148-154 149 तदप्रमत्ततालम्बं स्थितिमान्तर्मुहूर्तिकीम् । दधानमप्रमत्तेषु परां कोटिमधिष्ठितम्।। ___ सदृष्टिषु यथाम्नायं शेषेष्वपि कृतस्थिति। प्रकृष्टशुद्धिमल्लेश्यात्रयोपोबल वृंहितम्।। -आदिपुराण, 21/55*55 150 तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोब्द णिप्पकंपस्स। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइज्झाणं परमसुक्कं ।। – ध्यानशतक, 82
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