Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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वैदिक-दर्शन में विभूति कहते हैं । जैन - परम्परा में अन्तराय - कर्म के क्षय या क्षयोपशम से प्राप्त शक्तियों को लब्धि कहा गया है। इसमें दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य - ऐसी पांच लब्धियाँ होती है, जो अन्तराय - कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं।
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जैनधर्म में और विशेष रूप से 'ध्यानशतक' नामक इस प्रस्तुत ग्रन्थ में हमें लब्धियों की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है, किन्तु धर्मध्यान और शुक्लध्यान के फलों की चर्चा करते हुए उनसे कर्ममल की विशुद्धि और कर्मक्षय की बात कही गई है।
कर्मक्षय की इस प्रक्रिया में घातीकर्मों का क्षय प्रमुख होता है । अन्तरायकर्म भी एक घातीकर्म है, अतः उसके क्षय से दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-रूप विशिष्ट शक्तियों की प्राप्ति होती है।
वैसे, जैन - परम्परा में प्रारंभ में तो कर्म-क्षय या क्षयोपशमजन्य लब्धियों की चर्चा मिलती है, किन्तु कालान्तर में योग - परम्परा के 'विभूतिपद' के समान ही अन्य लब्धियों की चर्चा भी मिलने लगती है।
जैन-आगम-साहित्यों में सर्वप्रथम 'भगवतीसूत्र' में लब्धियों की चर्चा मिलती है। उसके अष्टम शतक के द्वितीय उद्देशक में लब्धियों का वर्णन हुआ। वहाँ सर्वप्रथम दस लब्धियों की चर्चा मिलती है, उनमें से पाँच लब्धियाँ तो वही हैं, जो अन्तराय-कर्म के क्षय अथवा उपशम से प्राप्त होती हैं, शेष पांच लब्धियों में दर्शनलब्धि, ज्ञानलब्धि, चारित्रलब्धि, चारित्राचरित्रलब्धि और इन्द्रियलब्धि की चर्चा हुई है। वहाँ इनके भेद - प्रभेदों की भी विस्तार से विवेचना हुई है जैसे ज्ञानलब्धि के पहले दो विभाग किए हैं और फिर ज्ञानलब्धि के पाँच और अज्ञानलब्धि के तीन- ऐसे आठ विभाग किए गए हैं। इसमें पांचों ज्ञानों की प्राप्ति
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154 दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च (तत्त्वार्थसूत्र, 2 / 4 ) अन्तरायकर्म के क्षय से दान, लाभ, भोग उपभोग और वीर्य ये पांच लब्धियाँ प्राप्त होती है ।। तत्त्वार्थसूत्र ।। पं. सुखलालजी संघवी । पृ. 49 155 कतिविहाणं भंते! लद्धी पण्णत्ता ? गोयमा । दसविहा लद्धी पण्णत्ता, तं जहा
1. नाणलद्धी, 2. दंसणलद्धी, 3. चरित्तलद्धी, 4. चरित्ताचरित्तलद्धी, 5. दाणलद्धी, 6. लाभलद्धी, 7.भोगलद्धी, 8. उपभोगलद्धी, 9. वीरियलद्धी, 10. इंदियलद्धी भगवतीसूत्र, प्रका. लाडनूं, आ. महाप्रज्ञ, 8 शतक, 2 उद्दे, 139 सूत्र, 47-48 पृष्ठ
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