Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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कहलाती हैं। इन सबके अतिरिक्त, साधक को विद्याधरत्व, आशीविषत्व, भिन्नाक्षर और अभिन्नाक्षर आदि सभी ऋद्धियाँ भी प्राप्त हुआ करती हैं। 158
लब्धियों की यह चर्चा हमें 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' के वर्तमान संस्करण में भी उपलब्ध होती हैं। प्रेक्षा : एक परिचय नामक पुस्तक में लिखा है कि "लब्धिधारी साधु आनापान लब्धि से अन्तमुहूर्त में पूर्वो का प्रत्यावर्तन कर लेते हैं।159 यहाँ यह ज्ञातव्य है कि डॉ. सागरमल जैन ने प्रश्नव्याकरणसूत्र के वर्तमान संस्करण को और उसके लब्धि-सम्बन्धी विवरण को परवर्ती ही माना है 160 और इस पर तत्त्वार्थ भाष्य एवं पातंजलयोगसूत्र का प्रभाव माना है।
___ लब्धि पदों का उल्लेख दिगम्बर-परम्परा में षट्खण्डागम में भी मिलता है। श्वेताम्बर-परम्परा में ये लब्धि-पद. सूरिमंत्र का आधार बने हैं। सूरिमंत्र में अनेक लब्धिधारियों को नमस्कार किया गया है।
वर्तमान में वर्धमान-विद्या और सूरिमंत्र आदि में भी इन्हीं लब्धि-पदों का उल्लेख है, साथ ही इन लब्धि-पदों के धारकों को वंदन किया गया है। यह स्पष्ट है कि इन लब्धियों की प्राप्ति को साधनाजन्य माना गया है और इसलिए हम यह कह सकते हैं कि धर्मध्यान और शुक्लध्यान की साधना से इन लब्धियों की प्राप्ति होती है।
आगे भाष्यकार उमास्वाति कहते हैं कि उपर्युक्त ऋद्धियों के प्राप्त हो जाने पर भी तृष्णारहित होने के कारण जीव उन ऋद्धियों में आसक्ति या मूर्छा से सर्वथा
158 आमीषधित्वं विगुडौषधित्वं सर्वौषधित्वं शापानुग्रहसामर्थ्यजननीमभिव्याहारसिद्धिमीशित्वं वशित्वमवधिज्ञानं शारीरविकरणांग
प्राप्तितामणिमानं लघिमानं महिमानमणुत्वं अणिमा विसच्छिद्रमपि प्रविश्यासीतां। लघुत्वं नाम लघिमा वायोरपि लघुतरः स्यात् । महत्त्वं महिमा मेरोरपि महत्तरं शरीरं विकुर्वित। प्राप्तिर्भूमिष्ठोऽगल्यग्रेण मेरूशिखर भास्करादीनपि स्पृशेत् । प्राकाम्यमप्सु भूमामिव गच्छेत् भूमावप्पियव निमज्जेदुन्मज्जेच्च। जंघाचारणत्वं येनाग्निशिखाधूमनीहारावश्यायमेघवारिधारा मर्कट तन्तुज्योतिष्कररश्मिवायूनामन्यतममप्युदाय वियति गच्छेत्। वियद्गतिचारणत्वं येन वियति भूमाविव गच्छेत्। शकुनिवच्चं प्रडीनावडीनगमनानि कुर्यात् । अप्रतिघातित्वं पर्वत मध्येन वियतीव गच्छेत् । अन्तर्धानमदृश्यो भवेत्। कामरूपित्वं नानाश्रयानेकरूपधारणं युगपदपि कुर्यात् तेजोनिसर्ग सामर्थ्य मित्येतदादि। इति इन्द्रियेषु मतिज्ञानविशुद्धिविशेषाद्दूरत्स्पर्शनास्वादनघ्राणदर्शनश्रवणानि विषयाणां कुर्यात् । संभिन्नज्ञानत्वं युगपदनेकविषयपरिज्ञान मित्येतदादि। मानसं कोष्ठबुद्धित्वं बीजबुद्धित्वं ..........।
- सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्-10, खूबचंद्र सिद्धान्तशास्त्री, पृ. 461 19 प्रस्तुत संदर्भ ‘प्रेक्षा : एक परिचय' पुस्तक से उद्धृत, पृ.8 160 जैनधर्म और तान्त्रिक साधना, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 120
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