Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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सामान्यतया, तन्त्र-मन्त्र आदि की साधना को लब्धियों की प्राप्ति से जोड़ा जाता है, किन्तु अध्यात्म-प्रधान और निवृत्ति-मार्गी जैन-धर्म मूलतः मन्त्र-तन्त्र की साधना को आध्यात्मिक-दृष्टि से उचित नहीं मानता है। यह सत्य है कि जैन धर्म में भी मान्त्रिक-साधना के द्वारा लब्धियाँ प्राप्त होती थीं, ऐसे उल्लेख मिलते हैं, किन्तु जैन धर्म कभी भी उसे साधना का लक्ष्य नहीं मानता है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित 'रयणसार' नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि 'जो मुनि तन्त्र -मन्त्र-विद्या आदि की साधना करता है, वह श्रमणों के लिए दूषित-रूप है।101
इसी प्रकार, ज्ञानार्णव 162 में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है – “वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, मारण, उच्चाटन आदि की साधना करना; जल, अग्नि, विष आदि का स्तम्भन करना, रसकर्म या रसायन बनाना, नगर में क्षोभ उत्पन्न करना, इन्द्रजाल अर्थात् जादू करना, सेना का स्तम्भन करना, जीत-हार का विधान बताना, विद्याओं की सिद्धि की साधना करना, ज्योतिष, वैद्यक एवं अन्य विद्याओं की साधना करना, यक्षिणीमंत्र, पातालसिद्धि के विधान आदि का अभ्यास करना, कालवंचना अर्थात् मृत्यु को जीतने की मंत्रसाधना करना, पादुका–साधना से अदृश्य होने तथा गढ़े धन देखने के लिए अंजन की साधना करना, शस्त्रादि की साधना करना, भूतसाधन, सर्पसाधन इत्यादि विक्रिया-रूप कार्यों में अनुरक्त होकर जो दुष्ट चेष्टा करने वाले हैं, उन्होंने आत्मज्ञान से भी हाथ धोया और अपने दोनों लोक का कार्य भी नष्ट किया। ऐसे पुरुषों को ध्यान की सिद्धि होना भी कठिन है।"
161 जोइस-वेज्जा-मंतोव-जीवणं वायवस्स ववहारं। धण-धण्ण-परिग्गहणं समणाणं दूसणं होई - रयणसार, 103 162 कौतुकमात्रफलोऽयं पुरप्रवेशो महाप्रयासेन। सिध्यति न वा कथंचिन्महतामपि कालयोगेन ।।
स्मरगरलमनोविजयं समस्तरोगक्षयं वपुः स्थैर्यम् । पवनप्रचारचतुरः करोति योगी न संदेहः ।। जन्मशतजनितमुग्रं प्राणायामाद्विलीयते पापम् । नाडीयुगलस्यान्ते यतेर्जिताक्षस्य धीरस्य ।। जलबिन्दु कुशाग्रेण मासे मासे तु यः पिबेत्। संवत्सरशतं साग्र प्राणायामश्च तत्सम ।। - ज्ञानार्णव
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