Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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उसके लेश्या, काल, लिंग, फल आदि का वर्णन किया गया है। हिंसानन्द के प्रसंग में तन्दुलमत्स्य और अरविंद विद्याधर का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। 132 आदिपुराण में कुछ विशेष कथन
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आदिपुराण में कहा गया है किं मुनिजनों को आर्त्त तथा रौद्रध्यान का त्याग करना चाहिए, क्योंकि दोनों ध्यानों के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं रहती; कारण यह है कि अनादिकाल की वासना से ये स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं। उत्कृष्ट ध्यानसिद्धि हेतु कुछ परिकर्म देश, काल व आसन आदि विशेष प्रकार के साधन अभीष्ट बताए गए हैं। 135 परिकर्म का वर्णन ध्यानशतक के धर्मध्यान के अन्तर्गत द्वारों की चर्चा में उपलब्ध है। उदाहरण के लिए, दोनों ग्रन्थों के निम्नलिखित पद्यों का मिलान किया जा सकता है
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निच्चं चिय जुवइ-पसू - नपुंसग - कुसीलवज्जियं जइणो । ठाणं वियणं भणियं विसेसओ झाणकालंमि ।।
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स्त्री-पशु-क्लब - संसक्तरहितं विजनं मुनेः । सर्वदैवोचितं स्थानं ध्यानकाले विशेषतः । ।
ध्यानशतक -35
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जच्चिय देहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ ।
झाइज्जा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णो वा ।। ध्यानशतक -39 देहावस्था पुनर्यैव न स्याद् ध्यानोपरोधिनी ।
तदवस्थो मुनिर्ध्यायेत् स्थित्वाऽऽसित्वाऽधिशय्यवा । । - आदिपुराण 21 / 75
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सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल- चेट्ठासु । वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समिय पावा ।।
यद्देस - काल - चेष्टासु सर्वास्वेव समाहिताः । सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति नात्र तन्नियमो ऽस्त्यत । । - आदिपुराण, 21 /82
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आदिपुराण - 21 /77
132 प्राणिनां रोदनाद् रूद्रः क्रूर ..नेत्रयोश्चातिताम्रताम् ।। आदिपुराण, 21/42-53
133 प्रयत्नेन विनैवैतदसद्ध्या..... फलमन्त्र द्वयात्कम् ।।
वही, 21/54-56
134 ध्यान के परिकर्म का विचार - तत्त्वार्थ वार्तिक, 9/44; तथा भगवती - आराधना 1706-07
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शून्यालये श्मशाने वा.. ..वाच्यमेतच्चतुष्टयम् ।।
आदिपुराण, 21 /57-84
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ध्यानशतक, 40
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