Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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की विवेचन-शैली एक समान है। इतना ही नहीं, 'आदिपुराण' में ऐसे कितने ही श्लोक भी उपलब्ध होते हैं, जो ध्यानशतक की प्राकृत-गाथाओं के संस्कृत छायानुवाद जैसे दिखाई देते हैं, 125 इसका विवेचन इस प्रकार है, यथा - ध्यानशतक में मंगल के पश्चात् कहा गया है कि स्थिर अध्यवसाय ध्यान है तथा अनवस्थित चित्त को एकाग्र बनाने में भावना, अनुप्रेक्षा तथा चिन्ता - ये तीनों सहायकभूत हैं। छद्मस्थों का ध्यान अन्तर्मुहूर्त काल का होता है तथा केवली का ध्यान योगनिरोधरूप होता है। अन्तर्मुहूर्त-पर्यन्त ध्यान के समाप्त हो जाने के बाद ध्यानान्तर में अनुप्रेक्षा या भावनारूप चिन्तन होता है। बहुत सी वस्तुओं में संक्रमण के बावजूद भी ध्यान भंग नहीं होता है। 126 आदिपुराण में भी यह स्पष्ट लिखा है कि एक वस्तु में जो एकाग्ररूप से चिन्ता का निरोध होता है, वह ध्यान है। प्रथम संहनन वाला व्यक्ति इसका अधिकारी है, तथा इस ध्यान की अवधि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त है। अनुप्रेक्षा, चिन्ता और भावना – ये तीनों चित्त की अवस्थाएँ हैं। उपर्युक्त लक्षणों वाला ध्यान छद्मस्थों का होता है और सर्वज्ञों का ध्यान तो योगनिरोधरूप होता है।
ध्यानशतक तथा आदिपुराण की अधोलिखित पद्यों में समानता दिखाई देती
जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता।। - ध्यानशतक-2 स्थिरमध्यवसानं यत् तद् ध्यानं यच्चलाचलम् । सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा।। - आदिपुराण-21/6
125 ध्यानशतक' सं. विजयकीर्त्तियशसूरि, सन्मार्ग प्रकाशन, अहमदाबाद, पुस्तक के ध्यानशतक के तुलनात्मक अध्ययन से, पृ. 114 126 एकाग्रेयण निरोधो यश्चित्तस्यैकत्र वस्तुनि। तद्ध्यान वज्रकं यस्य भवेदान्तमुहूर्ततः स्थिरमध्यवसानं
त् तद् ध्यानं यच्चलाचलम्। सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावनाा चित्तमेववा। छदमस्थेषु भवेदेतल्लक्षणं विश्वदृश्वनाम् । योगास्रवस्य संरोधे ध्यानत्वमुपचर्यते।। - आदिपुराण, 21/8-10
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