Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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'ध्यानसार' के अनुसार परमेष्ठी आदि के वाचक ओंकार आदि अक्षरों की पंक्ति को उच्चारण के द्वारा दुहराना ध्याता का पदस्थ-ध्येय कहलाता है।159
'स्वाध्यायसूत्रानुसार', पवित्र-निर्मल अक्षर आदि पर आश्रित ध्यान को पदस्थ कहा जाता है। जिस प्रकार पिण्डस्थ-ध्यान में पिण्डरूप प्रतीक को केन्द्र मानकर उस पर ध्यान का अभ्यास किया जाता है, उसी प्रकार पदस्थ-ध्यान में अक्षरों को केन्द्र मानकर अभ्यास किया जाता है। पिण्डस्थ-ध्यान की अपेक्षा पदस्थ-ध्यान सूक्ष्म होता है। पिण्डस्थ-ध्यान के अन्तर्गत पृथ्वी, वायु आदि स्थूल प्रतीक केन्द्र बनते हैं, वहीं पदस्थ-ध्यान में उनका स्थान अक्षर ले लेते हैं। इस तरह, साधक सूक्ष्म केन्द्र के माध्यम से आत्मोन्मुखता पाने में विशेष विकास की दिशा में गतिशील बनता है।160
रूपस्थ-ध्यान का स्वरूप -
अरिहंत भगवान् के स्वरूप का आलम्बन लेकर किया जाने वाला ध्यान रूपस्थ-ध्यान कहलाता है। दूसरे शब्दों में, तीर्थंकर आदि महापुरुषों के सद्गुणों एवं आदर्शों को अपने सामने उपस्थित कर, उनका आश्रय लेकर साधक के द्वारा जो ध्यान किया जाता है, वही ध्यान रूपस्थध्यान है।
'ज्ञानार्णव' में पैंतीस सर्ग के 'रूपस्थध्यान' के अन्तर्गत श्लोक क्रमांक-1 से लेकर 46 तक रूपस्थ ध्यान का वर्णन है। उसमें लिखा है कि जिस अरहंत देव के द्वारा अनन्तज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, लोभ, उपभोग, वीर्य, क्षायिकसम्यक्त्व, चारित्र आदि जो इन नौ लब्धिसम्पन्न आभ्यन्तर लक्ष्मीयुक्त हैं, जो समस्त विश्व के ज्ञाता, दाता, सर्वहितैषी, प्रवर्धमान, निरामय, नित्य, अव्यय, अव्यक्त एवं पुरातन हैं, ऐसे
159 प्रवणाद्यक्षरश्रेणी परमेष्ठ्यादिवाचिकाम् । ध्वनिना वर्त्तनं तस्य पदस्थं ध्ययेमुच्यते ।। -ध्यानसार, 118 160 'पवित्राक्षराद्याश्रितं पदस्थम्'। - स्वाध्यायसूत्र, डॉ. छगनलाल शास्त्री, सूत्र 15, पृ. 267 16 अर्हतो रूपामालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते।। - योगशास्त्र- 9/7
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