Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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'स्वाध्यायसूत्रानुसार' इस धारणा की चिन्तन - प्रक्रिया वायु पर आधारित है । तीनों लोकों को आपूरित, पर्वतों, समुद्रों को अपने प्रभाव से प्रभावित करती हुई वायु आग्नेयी-धारणा में देह और आठों कर्मों के जल जाने से जो भस्म बनी थी, उसे गगनमण्डल में यत्र-तत्र विकीर्ण करके शान्त हो गई – ऐसा सोचना वायवी धारणा है | 201
4. वारूणी - धारणा
वायवी - धारणा के पश्चात् साधक वारूणी- धारणा को सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। इस धारणा का संबंध जल - तत्त्व से है। ध्यानी- साधक ऐसी परिकल्पना अथवा चिन्तन करे –“इन्द्रधनुष, बिजली एवं गर्जनादि से रहित अमृततुल्य जलयुक्त मेघमाला से आकाश व्याप्त है । तदनन्तर मेघों के एकदम बीच में अर्द्धचन्द्राकार बिन्दुयुक्त वरुण-बीज 'वँ पर अपना ध्यान केन्द्रित करे। वरुण-बीज से निरन्तर उत्पन्न अमृत सम वर्षा हो रही है। उस जल द्वारा पूर्व में शरीर तथा कर्मों के दहन से उड़ने वाली एवं शान्त राख की ढेरी प्रक्षालित हो रही है ।
पौद्गलिक - देह तथा अष्टकर्मों की राख बरसात के पानी से धुलकर साफ हो रही है | 202
इस धारणा द्वारा शरीर और कर्मों की भस्मीरूप में बचा हुआ अवशेष भी नहीं रहा है, वह सम्पूर्ण रूप से विलीन हो गया है। यह आत्मविशुद्धि का एक सुन्दर काल्पनिक प्रयोग है ।
201 स्वाध्यायसूत्र, 10 / 12, पृ. 266
202 क) स्मरेद वर्षत्सुधासारैः धनमालाकुलं नभः ।
ततोऽर्धेन्दुसमाक्रान्तं मण्डलं वरूणांकितम् ।।
नभस्तलं सुधाम्भोभिः प्लावयेत्तत्पुरं ततः ।
तद्रजः कायसम्भूतं क्षालयेदिति वारूणी ।। योगशास्त्र- 7/21-22
ख) वारूण्यां स हि पुण्यात्मा घनव्रातचितं नभः । इन्द्रायुधतडिद्गर्जि चमत्काराकुलं स्मरेत् सुधाम्बुप्रभवै... .. प्रक्षालयति निःशेष तद्रजः कायसभवम् ।। ज्ञानार्णव- 34 / 24-27
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