Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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को भी स्पष्ट किया गया है।'' तत्त्वार्थसूत्र में धर्मध्यान के सिर्फ चार भेदों का ही उल्लेख किया गया है, उसके स्वामी के सन्दर्भ में कुछ भी निर्देश नहीं है, जबकि उस पर लिखी गई टीका 'सर्वार्थसिद्धि' के अन्तर्गत धर्मध्यान के स्वामी के संबंध में यह कहा गया है कि वे अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत के अधिकारी होते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यभूत, तत्त्वार्थवार्त्तिक में अलग से स्वामी के विषय में वर्णन तो नहीं किया, परन्तु शंका-समाधान में सर्वार्थसिद्धि के समान धर्मध्यान के स्वामी अविरतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत बताए गए हैं।
तत्त्वार्थसूत्र पर रचे गए तत्त्वार्थाधिगमसम्मत सूत्रपाठ में लिखा है कि धर्मध्यान के चार प्रकार अप्रमत्तसंयत में तो हैं ही, साथ ही उपशांतकषाय तथा क्षीणकषाय में भी होते हैं।
ध्यानशतक की गाथा क्रमांक-63 के अनुसार, सभी प्रमादों से रहित श्रमण ही धर्मध्यान का स्वामी है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने ध्यानशतक की टीका में उपशान्तमोह अर्थात् उपशामक –निर्ग्रन्थ और क्षीणमोह अर्थात् क्षपक-निर्ग्रन्थ का अर्थ प्रकट किया है।" तत्त्वार्थसूत्र में शुक्लध्यान का निरूपण करते हुए कहा है कि शुक्लध्यान के चार भेदों में से प्रथम दो भेद सद्भाव-श्रुतकेवली के और चरम के दो भेद सद्भाव के कहे गए हैं।
___ आगे, योग के आधार पर उनके स्वामित्व को दिखाते हुए कहा गया है कि प्रथम शुक्लध्यान तीनों योगों वाले साधक को, दूसरा शुक्लध्यान तीनों योगों में से
76 आज्ञाविचय 45-49, अपायविचय 50, विपाकविचंय 51, संस्थानविचय 52-62 | – वही, गाथा 45-62 7 तदविरत-देशविरत-प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति।।- सर्वार्थसिद्धि, 9/36 78 तत्त्वार्थवार्तिक, 9/36, 14-16 79 आज्ञापाय-विपाक-संस्थान विचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य। उपशान्त-कषाययोश्च। - तत्त्वार्थसूत्र, अ.9, सू. 37-38 ४० सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहाय। झायारो नाण-धणा धम्मज्झाणस्स निद्दिट्ठा – 'निद्दिवा' पद से यह प्रकट है कि ग्रन्थकार
के समक्ष उक्त प्रकार के धर्मध्यान के स्वामियों का प्ररूपक तत्त्वार्थसूत्र जैसा कोई ग्रन्थ रहा है। - ध्यानशतक गाथा 63 81...मुनयः साधवः क्षीणोपशान्तमोहाश्च' इति क्षीणमोहः :-क्षपक निर्ग्रन्था उपशान्त मोहा उपशामकनिर्ग्रन्थाः
- ध्यानशतक की हरिभद्रीय-टीका
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