Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
View full book text
________________
भेदों के अन्तर्गत पांचवा भेद ध्यान है, जिसकी प्ररूपणा गाथा क्रमांक - 197 से 208 में की गई है, अर्थात् संक्षेप में, ध्यान के महत्त्व, भेद, फलादि का उल्लेख किया है।
सर्वप्रथम ध्यान को चार भागों आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल में विभक्त करते हुए आर्त्त और रौद्र-ध्यान को अप्रशस्त तथा धर्म और शुक्ल ध्यान को प्रशस्त कहा गया है। 84
आर्त्तध्यान के चार भेद - अमनोज्ञ के संयोग, मनोज्ञ के वियोग, परीषह अर्थात् वेदना और निदान के विषय में कहा है कि जो सकषाय ध्यान (चिन्तन) है, वह आर्त्तध्यान कहलाता है। 85
चोरी, असत्य, धनादि का संरक्षण तथा छह प्रकार के आरम्भ के सन्दर्भ में जो सकषाय चिन्तन-मनन होता है, उसे रौद्रध्यान कहते हैं । 86
उपर्युक्त दोनों ध्यानों को मुक्ति में बाधक मानकर उन्हें छोड़ने की तथा धर्म और शुक्ल - ध्यान में मन के अध्यवसायों की एकाग्रतापूर्वक रमण करने की प्रेरणा दी गई है। 87 तत्पश्चात्, आज्ञा, अपाय, विपाक, संस्थान-विचय, जो धर्मध्यान के चार भेद हैं, उनके स्वरूप का निरूपण किया गया है और चरम संस्थानविचय के प्रसंग में धर्मध्यानी अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन-मनन करता है, साथ ही बारह अनुप्रेक्षाओं के नामोल्लेख की चर्चा की गई है। 88
शुक्लध्यान के संबंध में तो केवल इतना ही कहा गया है कि उपशान्त कषाय में पृथक्त्ववितर्कविचार, क्षीणकषाय में एकत्ववितर्कविचार, सयोगी-केवली में
84 अट्टं च रूद्दसहियं दोणिवि झाणाणि I
85
3 अमणुण्णजोगइट्ठविओगपरीसहणिदाणकरणेसु
। - वही, अ. 5, गाथा 198
86
36 तेणिक्कमोससारक्खणेसु तध केव छव्विहारंभे ... । - वही, अ. 5, गाथा 199
'अवहट्टु अट्टरूद्दे महाभार
साहि ।
- वही, अ.5, गाथा 200- 201
87
88 आणापायविवायविचओ संठाणविचयं चं
325
मूलाचार, अ. 5, गाथा 197
Jain Education International
....... चिंतितज्जो ।
-
मूलाचार, अ.5, गाथा 201-206
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org