Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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ध्यानशतक और तत्त्वार्थसूत्र का तुलनात्मक अध्ययन -
आचार्य उमास्वाति ने लगभग द्वितीय अथवा तृतीय शताब्दी में तत्त्वार्थसूत्र की रचना की थी।
डॉ.. सागरमल जैन ने कहा -"वाचक उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र तथा तत्त्वार्थाधिगम जैन-दर्शन की अमर एवं अद्वितीय कृति है। इसमें तत्त्व, ज्ञान, आचार, कर्म, भूगोल, खगोल आदि समस्त महत्त्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ जैनदर्शन की सर्वप्रथम संस्कृत कृति है। इसकी भाषा सरल एवं शैली प्रवाहशील है।"59
तत्त्वार्थसूत्र दस अध्यायों में विभक्त है। किसी भी तरह भव्य जीवमुक्ति को प्राप्त हो, इस हेतु जीव-अजीवादि सात तत्त्वों का संक्षेप में वर्णन किया है। नौवें अध्याय में तप के विवेचन के अन्तर्गत संक्षेप में ध्यान का आख्यान किया गया है। ध्यानशतक में उसका प्रभाव विशेष रूप से प्रतीत होता है। तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए लिखा है – चित्त की चंचलता का निरोध ही ध्यान है। स्वामी और काल के सन्दर्भ में तो यह समझना है कि उत्तम संहननवाला साधक अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्यान करता है।
ध्यानशतक में स्थिर अध्यवसाय को ध्यान कहा है, जिसका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्र के समान ही है। तत्पश्चात् और स्पष्ट रूप से यह कहा है कि एक वस्तु में चित्त की स्थिरता ध्यान है, वह मात्र अन्तमुहूर्त तक ही एकाग्र रहता है। ध्यान के स्वामी के संबंध में तत्त्वार्थसूत्र में तो यह कहा है कि उत्तम संहनन वाला साधक ध्यान का अधिकारी होता है, जबकि ध्यानशतक में थोड़ा और स्पष्ट करते हुए कहा है कि इस प्रकार का ध्यान अल्पज्ञ-छद्मस्थ जीवों में ही होता है। केवलियों का ध्यान तो योगों के निरोध-रूप होता है, क्योंकि वहाँ मन अमन हो
59 'तत्त्वार्थसूत्र' – पं. सुखलालजी संघवी, पुस्तक के प्रकाशकीय से उद्धृत 60 उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । - तत्त्वार्थसूत्र-9/27
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