Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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कर्मों से रहित, देवों से पूजित अपने शरीरस्थ शुद्ध आत्मा का स्मरण करना ही तत्त्वभू नामक पाँचवी धारणा है।
'स्वाध्यायसूत्रानुसार' के अन्तर्गत लिखा है कि तत्त्वभू-धारणा आत्मतत्त्व के चिन्तन पर आधारित है। जो साधक आध्यात्मयोगी पिण्डस्थ-ध्यान को स्वायत्त कर लेता है, वह शिवसुख-मोक्ष के परम आनंद को प्राप्त करता है। पिण्डस्थ-ध्यान से व्यक्तित्व में ऐसा दिव्य ओज प्रादुर्भूत होता है कि वह बाहर से आने वाली विघ्न-बाधाओं से विमुक्त हो जाता है।209
इस प्रकार, पिण्डस्थ-ध्यान का अभ्यास हो जाने पर साधक शिवसुख या मोक्षरूप अनंत सुखों को प्राप्त करता है। इस तरह प्रथम धारणा में ध्याता मन को एकाग्र करता है, द्वितीय धारणा में शरीर तथा अष्टकर्मों को नष्ट करता है, तृतीय धारणा में आत्मा को देह तथा कर्मों के संबंध को भिन्न देखता है। चतुर्थ धारणा में कर्मों को नष्ट होता हुआ देखता है और पाँचवी धारणा के अन्तर्गत कर्म और देह से परे शुद्ध आत्मस्वरूप का अवलोकन करता है। फलतः, साधक को शुक्लध्यान तक पहुंचने की योग्यता प्राप्त हो जाती है।
जैन-परम्परा में पिण्डस्थादि ध्यान का विकास -
जहाँ तक धर्मध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत-भेदों का प्रश्न है तथा पिण्डस्थ ध्यान की पार्थिवी आदि पाँच धारणाओं का प्रश्न है, वस्तुतः वे आगमिक नहीं हैं। यह तो हमें स्वीकार करना होगा कि आगमों और प्राचीन स्तर की आगमिक-व्याख्याओं में इनका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं मिलता है। "यद्यपि ध्यान के ये चार प्रकार तथा पार्थिवी आदि पाँच धारणाएँ कब और कैसे जैन-परम्परा में विकसित हुए, इनका स्रोत कहाँ है और वे उत्तरोत्तर किस प्रकार से विकास को प्राप्त हुए -यह विचारणीय सन्दर्भ है; क्योंकि स्थानांग, समवायांग,
209 पार्थिव्याग्नेयी-मारूती-वारूणी-तत्त्वभ्वाख्याः पंचधारणाः पिण्डस्थस्य ।। -स्वाध्यायसूत्र - 10/10 210 साभ्यास इति पिण्डेस्थे योगी शिवसुखं भजेत्।। - योगशास्त्र - 7/25
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