Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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'स्वाध्यायसूत्रानुसार' आग्नेयीधारणा में साधक यों चिन्तन करता हैउसकी नाभि में सोलह पत्रवाला, कर्णिका के मध्य 'अहं' अंकनवाला और प्रत्येक पत्र में 'अ' से 'अः स्वर अंकितवाला कमल स्थापित है। हृदय में अष्टकर्मदलस्वरूप आठ पंखुड़ियों वाला अधोमुख कमल है। कर्णिका में स्थित 'अहं' महामंत्र के () से धीरे -धीरे चिनगारियों से युक्त अग्नि निकल रही है। परिकल्पना इस प्रकार होती है कि उस आग में अष्टकर्मरूप कमल जलकर भस्म हो जाता है, फिर अग्नि शांत हो जाती है। 199 प्रस्तुत धारणा के माध्यम से कर्मों के आवरण को भस्मीभूत करने का यह एक सरस एवं सुन्दर उपाय है। इस उपाय के कारण साधक कर्मक्षय की प्रक्रिया में इतना लीन हो जाता है कि उसके चित्त की चंचलवृत्ति दूसरी ओर न भटककर उसी में एकाग्र बनी रहती है। 3. वायवी-धारणा -
कर्मदहन के पश्चात् साधक को अपने भीतर की चित्त-परिणति को एक नए मोड़ की कल्पना में कल्पित करना होता है। साधक को यह चिन्तन करना है कि प्रचण्ड वायु समग्र विश्व को अपनी प्रचण्डता से प्रभावित करता हुआ, पर्वतों को चलायमान करता हुआ और समुद्रों को क्षुब्ध करता हुआ, अर्थात् घोर पवन इन सबको अपने प्रभाव से प्रभावित करता हुआ, साथ ही आग्नेयी-धारणा में शरीर तथा अष्टकर्मरूपी कमल को दहन करने के बाद बची हुई राख को उड़ा रहा है, राख का ढेर बिखर गया और इधर-उधर उड़कर वह स्थान साफ हो गया है, इस प्रकार दृढ़ अभ्यास के साथ वायु धीरे-धीरे शान्त हो रही है, ऐसी चिन्तन-धारा को वायवीधारणा कहते हैं। इसे मारूती धारणा के नाम से भी जाना जाता है।200
199 स्वाध्यायसूत्र, अ.10, सू.12, पृ.266 200 क) ततस्त्रिभुवनाभोगं पूरयन्तं समीरणम्। चलायन्तं गिरीनब्धीन् क्षोभयन्तं विचिन्तयेत्।
तच्च भस्मरजस्तेन शीघ्रमुधूयवायुना। दृढाभ्यासः प्रक्षान्तिं तमानयेदिति मारूती।। -योगशास्त्र-7/19-20 ख) विमानपथमापूर्य संचरन्तं समीरणम् । स्मरत्यविरतं योगी महावेगं महाबलम् ।।
चालयन्तं स ...........समीर शान्तिमानयेत।। - ज्ञानार्णव-34/20,21,22,23 ग) स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, पृ. 376 घ) श्रावकाचार संग्रह, भा.3, पृ.516
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