Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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मन्त्र और वर्णों का ध्यान -
इस ध्यान के अन्तर्गत 'अहं' को समस्त मंत्रों, वर्णों और पदों का स्वामी माना गया है, जो रेफ (') युक्त कला एवं बिन्दु से आक्रान्त अनाहत सहित मंत्रराज कहलाता है।148
'ज्ञानार्णव' के अन्तर्गत आचार्य शुभचन्द्र और 'योगशास्त्र' के अन्तर्गत आचार्य हेमचन्द्र ने अनाहत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि अहँ महामंत्र 'अनाहतदेव' से युक्त है।149
ज्ञानार्णव 150 एवं योगशास्त्र151 में इस महामंत्र की ध्यान–प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। विस्तार के भय से इसका वर्णन यहाँ न करते हुए मात्र इतना ही समझना है कि दूज के चांद की रेखा के सदृश एवं बाल के अग्रभाग के सदृश सूक्ष्म रूप से अनाहत 'ह' का धातव्य है।152
इस ध्यान के अन्तर्गत पहले लक्ष्य का आलंबन तत्पश्चात् अनुक्रम से लक्ष्य का अभाव बताया गया है।
लक्ष्य से अलक्ष्य की ओर आगे बढ़ना यह इस ध्यान का विधान है। जिस साधक का मन अलक्ष्य में स्थित हो जाता है, उसको मनोवांछित फल की प्राप्ति
होती है।153
148 अथ मन्त्रपदाधीशं सर्वतत्त्वैकनायकम। आदिमध्यान्तभेदेन स्वरव्यंजन सम्भवम् ।
ऊर्ध्वाधोरेफसंरूद्धं सकलं बिन्दुलाच्छितम् । अनाहतयुतं तत्त्वं मंत्रराजं प्रचक्षते ।। - ज्ञानार्णव- 35/7-8 149 क) अनाहताभिधं देवं दिव्यरूपं विचिन्तयेत्।। - वही- 35/25
ख) अनाहूताभिधं देवं विस्फुरन्तं विचिन्तयेत्।। - योगशास्त्र- 8/25 150 ज्ञानार्णव- 35/10, 16-19, 24 151 योगशास्त्र- 8/ 18-22, 25-26 152 क) चन्द्रलेखासमं सूक्ष्म स्फुरन्तं भानुभास्वरम् ।। -ज्ञानार्णव- 35/25 __ ख) निशाकर-कलाकरं सूक्ष्म भास्कर भास्वरम्।। - योगशास्त्र- 8/25 153 क) ध्यायेदेकाग्रतां प्राप्य कर्तुं चेतः सुनिश्चलम् ।। - ज्ञानार्णव- 35/27
ख) निषण्णमनसस्तत्र सिध्यत्यभिमतं मुनेः ।। - योगशास्त्र- 8/28
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