Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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पार्थिवादि पाँच प्रकार की धारणाओं का स्वरूप
एवं
जैन-परम्परा में विकास
पार्थिवादि प्रकार की धारणाओं का स्वरूप -
जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है, आगमेतर कुछ परवर्ती ग्रन्थों में ग्रन्थकारों ने ध्येय की दृष्टि से ध्यान को चार भागों में विभाजित किया है -
1. पिण्डस्थध्यान, 2. पदस्थध्यान, 3. रूपस्थध्यान और 4.रूपातीतध्यान।189
'पिण्ड' का अर्थ होता है -शरीर, मतलब स्पष्ट है कि शरीर के आलंबन द्वारा किया जाने वाला ध्यान पिण्डस्थ-ध्यान है। पवित्र-निर्मल पदों के आलंबन से किया जाने वाला ध्यान पदस्थ-ध्यान है। सर्वचिद्रूप के आलंबन से किया जाने वाला ध्यान रूपस्थध्यान है और सिद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार-स्वरूप सिद्धों के अवलम्बन से किया जाने वाला ध्यान रूपातीत-ध्यान कहलाता है।190
पिण्ड शब्द में किसी भी एक तत्त्व (वस्तु) की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ भी समाहित हैं, उदाहरणस्वरूप –अलग-अलग रूपों में सभी जगह व्याप्त पृथ्वी-तत्त्व को समवेत रूप से लिया जाए, तो वह पृथ्वी-पिण्ड-संज्ञा से अभिहित होता है। पृथ्वी के समान ही अग्नि, वायु, जल को भी पिण्डरूप माना गया है।
189 क) पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम्। चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनबुधैः ।। -योगशास्त्र -7/8
ख) पिण्डस्थं च पदस्थ.......भव्यराजीवभास्करै।। - ज्ञानार्णव – 34/1 ग) पिण्डस्थं च ...............रूपवर्जितम्।। - ध्यानस्तव, श्लोक - 24 घ) पिण्डस्थं.......ध्येय चतुविधं प्रोक्तं धर्म्यध्यानपथाध्वगैः।। – ध्यानसार, श्रीयशकीर्ति, श्लो.116
ड) पिण्डस्थ-पदस्थ-रूपस्थ-रूपातीत-लक्ष्यानुरूपमपि पुनश्चतुर्विधम् । -स्वाध्यायसूत्र, 10/12 190 पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनं। रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीत निरञ्जनं।। – स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, टीका, पृ. 226
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