Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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रूपातीत योगी के अध्यवसाय सिद्ध-परमात्मा के साथ एकीकृत हो जाना ही समरसीभाव कहलाते हैं। 182 आत्मा अभेद रूप से परमात्मा में सदा-सदा के लिए लीन हो जाती है। दूसरे शब्दों में, रूपातीत-ध्यान धरकर परमात्मा के समान निजस्वरूप में लीन होना है।183
"सिद्धहेमशब्दानुशासन-बृहत्वृत्ति' के अनुसार, अरिहन्त भगवान् के रूपातीत स्वरूप का ध्यान, जो योगीगम्य है, वह रूपातीत-प्रणिधान है।184
'ध्यानस्तव' में लिखा है -"मलरहित स्वच्छ स्फटिक मणि में प्रतिबिम्बित जिनेन्द्रतुल्य, सर्वकर्मों तथा देहातीत सिद्ध-स्वरूप अपनी आत्मा का जो चिन्तन किया जाता है, वह रूपातीत ध्यान कहा जाता है। 185
'ध्यानसार' में कहा गया है कि रत्नत्रय से सुशोभित, अतीन्द्रिय शुद्ध सिद्ध परमात्मा का चिन्तन-मनन रूपातीत ध्येय माना गया है।186
'स्वाध्यायसूत्रानुसार', सिद्ध-परमेश्वर के स्वरूप का आलंबन लेकर जो ध्यान किया जाता है वह रूपातीत ध्यान कहलाता है।187
संक्षेप में, "अपने शरीर का तथा लोक का चिन्तन करना पिण्डस्थ-ध्यान है। पंच नमस्कार-मन्त्र या एक, दो, तीन, चार आदि अक्षरों के मन्त्रों को वाचिक, उपांशु या मानसिक-भेदों से जप करना पदस्थ-ध्यान है। अपनी आत्मा को शरीर के समान अथवा समुद्घात के द्वारा लोकाकाश के समान चिन्तन-मनन करना, या फिर महागुणों से युक्त केवली भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करना रूपस्थ-ध्यान है तथा शुद्ध आत्मा का स्वरूप, कर्मकलंकरहित, रूपादिकरहित, शुद्धज्ञान, दर्शनमय
182 अनन्यशरणीभूयसतस्मिन् लीय........... परमात्मनि।। -योगशास्त्र- 10/3, 4 183 'रूपातीत ध्यान धरके बनूं तुम समाना', प्रस्तुत पंक्ति 'सुधारस' पुस्तक, मणिप्रभसागर, के महावीरस्वामी के स्तवन से उद्धृत 184 योगीगम्यमर्हतोध्यान' (सिद्धहेमशब्दानुशासन-बृहत्वृत्ति) प्रस्तुत संदर्भ ध्यानविचार-सविवेचन, पुस्तक से उद्धृत, पृ. 156 185 रूपातीतं भवेत्तस्य यस्त्वां ध्यायति शुद्धधीः। आत्मस्थं देहतो भिन्नं देहमात्रं चिदात्मकम्।। -ध्यानस्तव, श्लोक 32 186 अतीन्द्रियस्य शुद्धस्य रत्नत्रितयशालिनः । रूपातीतं मतं ध्येयं चिन्तनं परमात्मनः ।। -ध्यानसार, श्लो.120 187 'सिद्धस्वरूपावलम्बनं रूपातीतम्। – स्वाध्यायसूत्र, अधि.10, सूत्र 17
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