Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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प्रणवध्यान
इस ध्यान के अन्तर्गत 'ऊँ' पद का ध्यान किया जाता है । प्रायः सभी मोक्षवादी - परम्पराएँ इसे एकमत से स्वीकार करती हैं। जैन- दर्शन अर्थात जैन-वाड्.मय में ऊँ को पंचपरमेष्ठी के वाचक के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अनुसार अरहंत, अशरीरी - सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि - इन पांच पदों के प्रथम वर्ण को लेकर संधि करने से ऊँ शब्द निष्पन्न होता है, अर्थात् अ+अ+आ+उ+म= अ+अ+आ+=आ। आ + उ = ओ और ओ + म = ओम या ऊँ ऐसा माना गया है।' इस महामंत्र 'ॐ' को कुम्भक के माध्यम से ध्याया जाता है ।
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पंचपरमेष्ठी ध्यान
इस ध्यान के अंतर्गत सर्वप्रथम हृदय में आठ पंखुड़ियों से युक्त कमल को स्थित करके कर्णिका पर अंकित 'सप्ताक्षर अरहंताणं' पद का स्मरण, तत्पश्चात् चारों दिशाओं में चार पंखुड़ियों पर ' णमो सिद्धाणं', 'णमो आयरियाणं', 'णमो उवज्झायाणं’, ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' का ध्यान किया जाता है, फिर चारों विदिशाओं के पत्रों में क्रमशः एसो पंचनमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं इन पदों का ध्यान होता है, परन्तु ज्ञानार्णव में विदिशाओं में क्रम की भिन्नता नजर आती है। 157 इनके अतिरिक्त, जैन-ग्रन्थों में बहुत से मंत्र हैं, जिनका निरंतर एवं शुद्ध - अध्यवसायों से जप करने पर साधक को परमशान्ति मिलती है तथा कर्मों का नाश होता है । 158
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154 अरहत्ता-असरीरा - आयरिय - उवज्झाय - मुणिणो । पंचक्खरनिप्पण्णो ओंकरो पंच परमिट्ठो ।।
छत्पंकजे चतुष्पत्रे ज्योतिषमन्ति प्रदक्षिणम् । अ-स-आ- उ साऽक्षराणि ध्येयानि परमेष्ठिनाम् ।। - तत्त्वानुशासन 10
कुम्भकेन महामंत्र प्रणव परिचिन्तयेत् - योगशास्त्र - 8/30
156 अष्टपत्रे सिताम्भोजे कर्णिकायां कृतस्थितिम् । आद्य सप्ताक्षरं मन्त्रं पवित्रं चिन्तयेत्ततः ।।
सिद्धादिक-चतुष्कं च दिक्यत्रेषु यथाक्रमम् । चूलापाद - चतुष्कं च विदिक्पत्रेषु चिन्तयेत् ।। - योगशास्त्र, 8/33-34
ज्ञानार्णव- 35/41-42
.. दृष्टिबोधादिकं तथा ।। बृहद्रव्यसंग्रह, 49
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स्फुरद्विमलचन्द्रा
158 'अण्णं च गुरूवएसेण'
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